Sunday, September 23, 2018

वक़्त गड़रिया है

कुछ यादें जिन्हें मैं जी नहीं पाता
वो सपने बनकर
मेरी नींद में आते

मैं दो समय के बीच खड़ा
चाहत और भय से जड़ा
भूलने लगता हूँ अपने दोस्त-परिजन

भाग जाता हूँ छोड़ अपना शहर
जहाँ पहुँचा कर मैं बरसो सफ़र
जो फिर छूट गया हवा में

समय की सतह से
सटकर, सख़्त हो गया
जैसे दीवार पे जमीं फफूँदी

पेड़ों पे काई
समय किसी शहर में
निरंतरता में विराम

तुम्हारी बातों में हिचकियाँ
आकाश में चिड़ियों का झुंड
कोरे काग़ज़ पे स्याही के धब्बे

वक़्त गड़रिया है, हम भेड़
वो हाँकता हमें
यादों की छड़ी लिए

हम चरते जाते
चरते जाते
अपनी ज़िन्दगी




Monday, September 17, 2018

हम उम्र भर सफ़र करें

कहीं   और  अब  बसर  करें
कहीं   और  अब  गुज़र  करें

ज़मीं पे बिखरी सड़कों से हम
कुछ ऐसी  राहें  मयस्सर करें

जिनपें  हम    चलते  -  चलते
रात      को      सहर      करें

बग़ैर मंज़िल की राहों को हम
शाद   महज़    चलकर  करें

आवारगी    ज़ाया     न    हो
हम   उम्र  भर    सफ़र  करें

हम   उम्र   भर  सफ़र  करें।।

[ग़ुज़र: to depart; मयस्सर: possible; सेहर: dawn]