Tuesday, December 30, 2014

दिन आज जल्दी गुज़रा था, रात आज लम्बी गुज़रेगी

आज दिन ग़ुज़र गया
पता ही नहीं चला।

खिड़की के बाहर पेड़ पे
अँधेरे ससर रहे थे
सूरज का क़त्ल हो चुका था
ख़ून के छींटें आसमान में जहाँ-तहाँ फैले थे
हल्की बारिश होने लगी थी

चाँद मातम मना रहा था
अपने चेहरे पे आँचल डाले था
ठुड्डी बस नज़र आ रही थी

सूरज के बिना,
रात की बस्ती में परेशान, चाँद
एक मुहाना खोजता है
जहाँ खड़े-खड़े वो वक़्त गुज़ारे।

मेरी खिड़की आज अकेली थी
चाँद को आवाज़ लगाते-लगाते
मैं सो जाता हूँ।

नींद, बीच में कभी, टूटती है
सपनों के बीज अभी भी जेब में पड़े थे,
नींद गहरी थी,
मैं उन्हे बोना भूल गया था।

चाँद भी आ चुका था, बेपर्दा
किसी शायर ने किया होगा?
जिस जेब में मैने सपने रखे थे,
उनमें छेद था, मेरे सपने
ज़मीन में गिर गए, बिखर गए।
हल्की बारिश हो रही थी। 

सपनों के टूटने की छनक, बारिश की टप-टप-टप
संगीत का काम कर रहे थे।
सब नाचने लगे, चाँद
थक कर गिर गया,
सपनों के ऊपर,
बारिश के नीचे।

सपने मर गए
नाँचते-नाँचते
चाँद में भी दरार आ गयी
हल्की सी लक़ीर पड़ी, फिर शिकन पड़ी। 

खिड़की पे खड़ा मैं
चाँद को मरहम देता हूँ।
वो मेरा मरहम इंकार कर देता है
सस्ता है, बोल कर फेंक देता है
कह कर चला गया कि
जाता हूँ उस शायर की खिड़की पे, जहाँ
चाँद के ज़ख़्म भरे जाते हैं।

मेरी खिड़की फिर सूनी हो गयी
मैं सोने की कोशिश करता हूँ
सपनों के बिना।

दिन आज जल्दी गुज़रा था,
रात आज लम्बी गुज़रेगी।