Sunday, August 12, 2018

समय की खोज में

हिलती हुयी पेड़ों की डालियाँ
हौले-हौले नाचता विंडमिल
हवाओँ की बातचीत
कहीं तुकबंदी
कहीं पर छंद-मुक्त, बेचैन।
सब जुड़ीं हैं ऐसे
ना आदि है, ना अंत
बस एक परछाईं है
घटती-बढ़ती सी
जैसे समय के वक्ष पे
लेटी पुरानी यादें
जिन्हे सहलाने आता
दूर से कोई दोस्त
इतनी दूर से जहाँ
उसके जिस्म और साये
एक से नज़र आते
मेरी कलम उस दोस्त जैसी
टहलती काग़ज़ के पन्नो पे
अपनी परछाईं को थामें
समय की खोज में
कालचक्र में क़ैद वो......

Monday, August 6, 2018

मकड़ी का जंगला

बेसब्री सी एक सड़क
जिसके किनारे खड़ा
बस-स्टॉप का खम्बा
जिसपे अक्सर,
उकताकर,
मैं लद जाता हूँ।

आज बारिश हुयी
तब देखा उसे -
उस मकड़ी के जंगले को,
जिनपे टंगीं थीं
बारिश की बूँदें
इतनी गोल
मानो सर्फेस-टेंशन ने उन्हें
तन्हाई में बनाया होगा
बाकी सारे फोर्सेज़ ने
बैठ उन्हे बनते देखा होगा।

और जब सड़क पे गाड़ियाँ ग़ुज़रतीं,
अपने हेड-लाइट्स को जलाये हुए,                 
बूँदों में रौशनी भरने लगती,
बूँद-बूँद।                                                     
उरूज पे सब सूरज बन जाते,
टिम-टिमाते जंगले पे,
सूक्ष्म रौशनी की लड़ियाँ
लटकतीं, डोलतीं हवा से।

और जब गाड़ियाँ दूर जाने लगतीं,
रौशनी कतरा-कतरा सूखती जाती,
जंगले के धागे
मानो उन्हें पीने लगे हैं
और झूमते जाते हैं
हवा की धुन पे।
बारिश की बूँदें,
बादल का अक्स लिए,
चमकतीं चाँद की तरह।

सड़क की बेसब्री
घटती, बढ़ती रहती।
बारिश की बूँदें,
कभी सूरज, कभी चाँद
का चोला पहने,
थरथराती रहतीं,
एक मासूम मकड़ी के जंगले पर।

                        - ताबिश नवाज़ 'शजर'