Monday, February 2, 2015

शहर के कीचड़

कमरे की खिड़की पे
आंसूओं के धब्बे थे
रात बारिश की बूँदों से
वो धब्बे धुल गए
दफ़्न आंसू ज़िंदा हुए
बारिश के साथ बह गए
रेंगते हुए मिट्टी में मिल गए ।

शहर के कीचड़
मेरे आँसूओं के हैं
सूखी मिट्टी बन कर लगे हैं
मेरे जूतों पर
जिन्हें पहन रोज़ाना मैं दफ़्तर जाता हूँ । 

शहर में लोग आंसूओं पे चलते हैं
मुझे शहर में चलने में तक़लीफ़ होती है  
मुझे इस शहर से ले चलो
शहर के कीचड़
आँसूओं के हैं ।

यह कविता शार्लस् बौडेलियर की कविता "ग्रीविंग एंड वांडरिंग" से प्रेरित है । 

Friday, January 9, 2015

आज घर जाने का जी नहीं करता।

आज घर जाने का जी नहीं करता
उनसे नज़रें मिलाने का जी नहीं करता
अपनी परछाईं से देखा है उन्हे कांपते हुए
वहाँ चिराग़ जलाने का जी नहीं करता।

कहीं आसपास चोरी हुयी है
इल्ज़ाम मेरे वजूद पे आया है
मासूमियत का यक़ीन दिलाने का जी नहीं करता
सज़ा जो मुक़र्रर होगी उसे मान लेंगे
अब फ़रियाद लगाने का जी नहीं करता।

पहचान मेरी, मेरा वजूद
मेरे साथ जायेगा
तुम्हारे पास उसे छोड़ के जाने का जी नहीं करता।

अच्छा हुआ बात सामने आ गयी
रोज़-रोज़ बात बनाने का जी नहीं करता।

काम करने के बाद
आज लौटूंगा नहीं, भटका करूंगा
अपने ही शहर में, बंजारों की तरह
अब कोई और घर बनाने का जी नहीं करता।

आज घर जाने का जी नहीं करता।