Friday, October 7, 2016

पल की ख़बर नहीं

पल की ख़बर नहीं,
सदियों का हिसाब रखते हैं।
नैनों में उधार की नींद,
किराए का ख़्वाब रखते हैं।

गर रूठ जाए कोई तो मना लो,
चला जाए तो बुला लो।
पहल करने वाले
ख़ुदा का ख़िताब रखते हैं।

उछाल दो सपनों को आकाश में,
कुछ उड़ जाएँगे पर लगाकर, कुछ गिरेंगे वापस हथेली पे।
बोना, सींचना ज़मीं में उन्हें,
हक़ीक़त ख़्वाब शादाब करते हैं।

'शजर' के कट जाने से बहार कहाँ रुका करते,
कब अशार रुके हैं
ज़ुबाँ के कुचल जाने से,
कुछ आग कहाँ आब से थमते हैं।

                                             - ताबिश नवाज़ 'शजर'

[ख़िताब: Title, Epithet, Honor; शादाब: Prosper, Grow; शजर: Tree; अशार: Poetry; आब: Water]