Tuesday, May 17, 2011

विचारों की अदालत

बात उन दिनों की है जब मैं बहूत फिक्रमंदी और सोच में डूबा रहता था। सोचना, और खो जाना मानो ऐसा लग रहा था कि कोई काम हो, पैसे मिल रहे हों, या फिर किसी ने कहा हो, खैर हटाईये कि कैसा लग रहा था। काफी विचार पनपे, कुछ जवान हुए, कुछ शिशु अवस्था में ही दम तोड़ गए। लेकिन सबमें समान बात यह थी कि कोई भी विचार मुझसे आगे न बढ़ पाया। सोचा कि इन विचारों का बांटा जाना कितना ज़रूरी है पर मेरी कोताही की वजह से उन लोगों ने किसी न किसी मोड़ पे दम तोड़ दिया। अक्सर उनकी चीखें मुझे सुनाई देने लगीं; और मैं अपने आप को दोषी मानने लगा। इसी आनन फ़ानन में मेरी आँखें लग गयीं।
कहते हैं जब मस्तिष्क दिन भर व्यस्त हो तो सपने आने स्वाभाविक हैं। मेरे दिमाग़ ने भी सपनों में समस्या का हल ढूँढने की कोशिश की। मैने देखा कि मैं कैदी का पोशाक धारण किये कटघरे में खड़ा हूँ। असल में यह अदालत विचारों की थी, और मुझपे विचारों की हत्या का आरोप था। हत्या का मामला यूं तो बहूत गंभीर होता है, पर मैं बहूत इत्मिनान से खड़ा था। सोच रहा था आज फ़ैसला हो ही जाये, सज़ा या माफ़ी, कम से कम जो चिख़ चीत्कार मेरे ह्रदय में गूँज रहे थे वो तो नहीं सुनाई देंगे ना। 
अदालत शुरू होने वाली थी। यह अदालत भी आम अदालत जैसी ही थी। एक जज था, जो नंगा बैठा हुआ था, और उसकी शक्ल मेरे जैसी थी। नंगा क्यूं था, मैं सोच रहा था, शायद इसलिए की यह विचारों की अदालत थी और वो विचारों को पोशाक मानता हो और निष्पक्ष रहना चाहता हो। मेरे अंदाज़ा आंशिक रूप से  सही निकला। थोड़ी देर बाद उसने यह एलान किया कि जो भी विचार विजयी होगा उसके पोशाक को वो धारण कर लेगा, और विजयी विचार को नग्न अवस्था में फैला दिया जायेगा। तर्क भी कुछ इस तरह दिया उसने ' भला कपड़े को कपड़े की क्या ज़रुरत, विचार और पोशाक में कोई ज़्यादा का अंतर थोड़े ना है'। जज की निष्पक्षता पे थोडा सवालिया निशान लग गए थे मेरे मन में, क्या पता इसको कोई पोशाक पसंद आ गयी तो? विचारों के नंगे विज्ञापन से मैं और भी मूर्छित हो गया। थोडे देर के लिए मैं सोचने लगा यह तो विचारों की वेश्यावृति है। क्या विचार वेश्या होती है? क्या नंगा होना ही उनका मकसद होता है? या फिर वो पोशाक की तलाश में नंगी होना चाहती हैं? कुछ पल तो ऐसा लगा कि मैं अदालत में नहीं चकले में हूँ और जज मुझे दलाल लग रहा था, विचारों का दलाल। इसी उलझन में था कि एक महीन सी आवाज़ ने मेरा ध्यान अपनी और खींच लिया, यह आवाज़ विरोधी पक्ष के वकील की थी। वो काना था और उसने रंग बिरंगे पोशाक पहने हुए था। मैं सोच रहा था कि यह अदालत में है या किसी पार्टी में। फिर थोड़ी देर बाद ख़्याल आया कि विभिन्न रंग उन विचारों के हैं जिनकी यह वकालत कर रहा है। सफ़ेद, काला, गुलाबी, हरा लाल इत्यादि सभी रंग मौजूद थे। इन सब के बीच मेरी नज़रों ने मेरे वकील को भी खोज निकाला। वह मुझे कोने में बैठा कुछ पढता हुआ नज़र आया। फ़कीर सी वेशभूषा,मानो ऐसा लग रहा था कि वो सदियों से हमारे जैसे मनुष्यों कि रक्षा करते आया है। तभी उसने अपने सिर को उठाया, अरे! यह क्या? उसके चेहरे पे तो आँख ही नहीं है। मैने बहूत गौर से देखा, असल में उसकी एक आँख उसके मस्तिष्क में थी और दूसरी उसके दिल में। तब मुझे एहसास हो गया कि यह वकील मुझे मुक्ति ज़रूर दिलाएगा, मेरी परेशानी को समझेगा। बहूत कम लोग दिल और दिमाग़ से देख पाते हैं। और, असली आँख वाले तो ऐसे ही अंधे होते हैं। मैं थोड़ा दार्शनिक भी हो गया और सोचा कहीं हमारी आँखों ने ही तो हमें अँधा तो नहीं बना दिया है?
तभी मेरा ध्यान कोर्ट में मौजूद अन्य लोगों पे गया,उनमें से कुछ विचार थे, कुछ मेरे हित में गवाही देने आये कुछ कारण और पल थे। सबका पहनावा अलग अलग था और रंग से भरा हुआ था। कुछ सफ़ेद पोश थे, कुछ काले , हरे, गुलाबी और कुछ लाल भी थे , और कुछ अंधेरे जैसे भी थे। इन अंधेरों ने मेरा ध्यान अपनी और आकर्षित किया। काफ़ी माथापच्ची के बाद यह मालूम हुआ कि यह मोडर्न युग के रोशन ख़्याल विचार हैं, रौशनी कि उम्मीद में अँधेरा मिला! यह सोच के थोड़ा और परेशान हो गया में, रौशन ख़्याल अंधेरे में डूबता ही जा रहा था कि जज ने अदालत कि कार्यवाही शुरू करने के आदेश दिए।
पहले बोलने का मौका मेरे वकील को मिला। उसने आवाज़ को बुलंद करते हुए शुरू किया "जनाब! आज हमारे सामने ऐसी परिस्थिति आयी है  जिसका ज़िक्र पहले कभी इतिहास में नहीं हुआ है। एक मनुष्य पे विचारों के क़त्ल का आरोप है। विचार, जिसके बारे में विद्द्वानो ने कहा है कि वह बुल्लेत्प्रूफ़ होता है। केवल विचार ही विचार कि हत्या कर सकता है, और वो ही उसे जन्म भी देता है। फिर यह हाड़ मांस का पुरुष विचार का क़त्ल कैसे कर सकता है, विचार तो अमर होता है, वो तो महज़ एक शक्ल से दूसरी शक्ल लेता है, और वो भी जनाब विचारों के ज़रिये, अर्थात विचार ही विचार करते हैं। यह मनुष्य के बस का नहीं, इसलिए हत्या या जन्म का प्रश्न ही नहीं उठता"।
जज ने बड़े गौर से वकील के दलील को सुना। दलील सही थी और जज दलील से थोड़ा परेशान भी हो गया और रंग बिरंगे पोशाक वाले विचारों को देखने लगा। मानो बोल रहा हो " कपड़े तो आज मैं पहन के ही जाऊँगा "।
जज की परेशानी ने मेरी परेशानी को और बढ़ा दिया। मैं एक पल के लिए सोचा क्या यह कोई कंगारू कोर्ट है? मेरी सज़ा होना निश्चित्त है?
इसी सोच में मैं डूबा था कि विरोधी पक्ष के गला खखारने की आवाज़ आई। आमतौर पे गला खाखार्केय लोग अपनी मौजूदगी का एहसास दिलाते हैं, शायद उसकी उपस्थिति का आभास अभी जज को हुआ, और उसके ज़र्द चेहरे पे चमक आई।
वकील ने शुरू किया "हुज़ूर, मैं इस अदालत को एक महान जर्मन चिन्तक से परिचित कराना चाहूँगा। हालांकि यह चिन्तक जिसका नाम फ्रेडेरिक नीचाह है, किसी परिचय का मोहताज नहीं। समस्त विश्व उसके विचारों से सहमत है और, उसके शोध को बड़े बड़े 'साईकोलोजिस्टों' ने प्रयोग किया है"।
'नीचाह' इस नाम का उच्चारण करने में मुझे सदा परेशानी हुयी, लेकिन आज नाम के अलावा कुछ और ही परेशान कर रहा था। चूंकि यह सब कुछ मेरे मस्तिष्क के धरातल पे चल रहा था, इसलिए मैं सोच रहा था कि क्या फ़ायदा ज्ञानार्जन का। मेरे ज्ञान मेरे ही ख़िलाफ़ इस्तेमाल किये जा रहे थे। मैं ' दस स्पोक ज़रथुस्त्र' में कहे गए एक कथन के बारे में सोचने लगा। 'नीचाह' कहते हैं अगर गुण और अवगुण बैलेंस में ना हों तो ह्रदय में क्लेश होता है। अगर कोई ज़्यादा गुणी हो तो उसके गुण आपस में लड़ पड़ते हैं, टकराते हैं और नतीजा अवगुण कि उत्पत्ति होती है। और वो तब तक होती रहती है जब तक दोनों बैलेंस में ना आ जायें। यह कंगारू कोर्ट भी मुझे उस ह्रदय क्लेश का आभास करा रहा था। मैं अपने ही ज्ञान, सुविचार, कुविचार को लड़ते हुए देख रहा था।
वकील की आवाज़ ने मेरा ध्यान कोर्ट की ओर खींचा। वकील बोल रहा था " 'दस स्पोक ज़रथुस्त्र' में नीचाह कहते हैं कि मनुष्य जब अपने से परे सोचने लगता है तो 'आउट ऑफ़ दी वर्ल्ड' कि चीज़ें एक्सपेरिएंस करता है। 'नीचाह' कहते हैं कि यह ख़ुद से बेज़ारी या 'सेल्फ देताच्मेंट' के कारण होता है, लोग सपनों में चले जाते हैं, और एक अलग जीती जागती दुनिया बसा लेते हैं। 'नीचाह' आगे कहते हैं कि मनुष्य जाती भी इसी प्रकार कि बसाई हुई एक दुनिया है, उसके द्वारा, जिसे हम भगवान्, ख़ुदा या गौड कहते हैं। मनुष्य भी एक विचार है, जिसकी उत्पत्ति गौड के अपने से परे सोचने से हुयी। जनाब यह साबित होता है कि यह मनुष्य जाती भी एक विचार से ज़्यादा नहीं। विचारों के लूप में यह बस हमसें एक सीढ़ी ही ऊपर है। पर, हैं यह तो भी एक विचार ही ना, परमात्मा का विचार "।
उसकी दलील ने मुझे इस बात का एहसास तो करा दिया कि 'क्रीयेटर' होना कितने घाटे का सौदा है। 'क्रियेशन' अगर 'क्रीयेटर' से सवाल करे और सज़ा दे, इससे बड़ी दुःख कि बात और क्या हो सकती है।
" अर्थात माई लोर्ड  मुजरिम को एक विचार मानते हुए विचारों का हत्यारा ठहराने में कोई हर्ज नहीं है"। वकील ने मुस्कुरा कर  मेरी ओर देखा और बैठ गया।
मैं भौचक्का खड़ा रहा। मेरे विचार ने मुझे विचार साबित कर दिया और वो भी सज़ा के क़ाबिल। मुझे अब धीरे धीरे इस बात का एहसास होने लगा था कि क्यूं कोई महात्मा अपने सिध्धांत के लिए शहीद होता है, दरअसल वो किसी ऐसी ही अदालत का शिकार होता है, विचार व्यक्ति से बड़े हो जाते हैं, और व्यक्ति अपनी व्यावहारिकता खो बैठता है।मैं मायूस हो गया था।
मेरा वकील खड़ा हुआ, थोड़ी देर चुप रहा और बोला "जनाब मेरे मित्र ने 'नीचाह' कि बात छेड़ी है तो उन्हे यह भी पता होगा कि 'नीचाह' के सिध्धांत 'नीहीलिस्म' यानी शून्यवाद पे आधारित है।'नीहिलिस्म' , शून्यवाद यानी सम्पूर्ण नीमूलता ' एब्सोलुट वैल्युलेस्नेस'। 'नीचाह' ने बताया कुछ भी तथ्य नहीं है, किसी भी मान्यता पे विश्वास ना करो। सारी मान्यताएं, ज्ञान परिप्रेक्ष्य यानि 'पर्स्पेक्टिविस्म' के बंदी हैं। कुछ भी 'एब्सोलुट' नहीं है। जब 'नीचाह' ने ही ऐसी बातों का उल्लेख किया है तो फिर हम इन बातों को कैसे मान लें, हालांकि हम 'नीहिलिस्ट' नहीं हैं पर मेरे क़ाबिल वकील तो हैं , फिर उनका तर्क इस कोर्ट को कैसे मान्य हो सकता है, जिस तर्क को मेरे वकील मित्र ही ना माने क्यूंकि वो एक 'नीहिलिस्ट' हैं "।
मेरे वकील की दलीलों ने मुझे कुछ राहत दी लेकिन वो भी छ्नीक था। क्यूंकि विरोधी वकील ने ठहाका लगा दिया था , जज ने उस 'रेनबो वॉरिअर' की इस अवहेलना को नज़रंदाज़ कर दिया।
रंगीन पोशाक धारक ने बोलना शुरू किया " 'नीचाह' ने अपनी तक़रीर में 'उबेर्मेंस्च' यानि 'सुपरमैन' और 'देर लेत्ज्ते मेंस्च' यानि ' दी लास्ट मैन' का ज़िक्र किया है। 'नीहिलिस्म' की बात 'देर लेत्ज्ते मेंस्च' के हवाले से दी गयी है। 'नीहिलिस्म' की थेओरी इस 'देर लेत्ज्ते मेंस्च' के सन्दर्भ में दी गयी है। ' देर लेत्ज्ते मेंस्च' को उन्होने सबसे घ्रिनीत, बिना किसी मान मर्यादा का बताया है। 'नीचाह' मानते हैं की मान्यतों के ज़रिये ही मनुष्य ख़तरे, तकलीफ़ों और बुरी परिस्थितियों का सामना कर पाता है। 'नीचाह' को 'नीहिलिस्ट' कहना एक अपराध है और यह वही अपराध है जिसको नाज़ियों और फैसिस्टवादियों ने किया था। 'नीचाह' की कामना 'उबेर्मेंस्च' होने की थी ना कि 'देर लेत्ज्ते मेंस्च' होने की"। 
वकील की दलील से मैं भी ख़ासा प्रभावित हुआ। खड़ा खड़ा मैं अदालत की कार्यवाही से बेज़ार हो गया। खैर आरोपण प्रत्यारोपण का दौर चला, कुछ गवाह भी आये जैसे कॉलेज की परीक्षा, फाईनल इयर प्रोजेक्ट, इन सबों ने मेरे पक्ष में गवाही दी।
अंत में मुझे सज़ा हो गयी। जज को कपड़े भी मिल गए । लेकिन सज़ा मेरे लिए महत्त्व खो चुकी थी। मैं तो उस सतरंगे योध्धा से मिलना चाहता था। मुझे मौका मिल ही गया। मैने पुछा तुम कौन हो? उसने पलट कर मेरी ओर देखा और मुस्कुराया और कहा "याद है तुमने "दस स्पोक ज़रथुस्त्र" पढ़ी थी। तुम्हारे ज़ेहन में कितने प्रश्न उठे थें। मैं उन्ही प्रश्नों की उत्पत्ति हूँ । तुम्हारे 'सब-कौन्शिअस माईंड' का एक विचार।"
"तुम सबसे ज़्यादा 'नीचाह' के इस कथन से चिंतीत थे ना " गौड इस डेड'! मैने हामी भरी।" साहब में आपका ही क्रियेशन हूँ, और मैनें आज आपको सज़ा दिलवाई है , मौत की सज़ा। मैं जानता हूँ कि आप अब भी उस कथन की वास्तविकता को लेकर परेशान हैं,लेकिन मैने बस कोशिश की है समझाने की। भगवान्, ख़ुदा तो क्रियेशन की रोज़ाना की ज़िन्दगी से जिंदा रहता है,उसके हर एक्तीवीतीज़ के ज़रिये सांस लेता है अगर क्रियेशन ही नकार दे क्रीयेटर को तो फिर काहे का क्रीयेटर अर्थात क्रीयेटर की मृत्यु हो गयी। क्रीयेटर को जिंदा रहने के लिए क्रियेशन का होना और उसका मानना बहूत ज़रूरी है। मैने बस आपको सज़ा दिलाकर आपको मानने से इनकार किया है, लेकिन यह सब सिर्फ़ आपको इस कथन की सुन्दरता का एहसास दिलानो को था। मैं जानता हूँ आप काफ़ी दिन विचलित रहे। क्या करूँ साहब, हम विचारों की प्रवृत्ति ही ऐसी होती है, परजीवियों (पैरासाईट) की तरह"।
वो इतना बोल के चला गया। कोर्ट रूम खाली हो चूका था। मैं अकेला था। निर्विचार बैठा था। घुटन सी होने लगी थी। ख़्याल आया कि परजीवी तो हम मनुष्य हैं इन विचारों पे। हम उनपे भक्षण करते हैं। काटते और खाते हैं।
खाली था सब और मैं भूख से तड़प रहा था। परजीवी कर भी क्या सकता है...होस्ट के अभाव में तड़पने के अलावा....
   

Saturday, March 26, 2011

DID U KNOW?

My last post contained references to Minotaur, Thesues and labyrinth. Just on a trivial note, Theseus used a ball of thread and tied it at the entrance of labyrinth before entering to kill Minotaur, and carried one end inside. It was done to retrace the path out of the labyrinth. Theseus called this piece of thread "clew", and thus the word clue came into being meaning hint or guide to crack something difficult!!
                                                
Therto have I a remedie in my thoght,
By a clewe of twyn as he hath gon,
The same weye he may returne a-non,
ffolwynge alwey the thred as he hath come. 
                   -Geoffrey Chaucer



Thursday, March 24, 2011

Mad Mumblings

Every morning when i wake up i am reminded of our beloved Prophet (PBUH). Every morning a noisy silence awakens me and i hear voices, mumblings..and sometime i hear a clear tacit voice asking me to write. Yes, i hear "write"!! My heart grows heavy and story of Prophet (PBUH) comes through my mind. How Archangel Gabriel came to Him and commanded Him to read and He said I cannot, and Archangel enjoined repeatedly to read. Finally divine orders prevailed and He read and thus began all travails. This story i heard in my childhood always captivates me and everytime i am reminded of the beauty of it. How a Man with no formal education and literacy and just by virtue of contemplation and divine selection went on to read and comprehend a treasure trove of wisdom which was elusive (until then) to even wisest of mankind. And, he read no ordinary words, it created a flutter then and it continues to create!!  
The whole story and my dillemma has created a sense of existential crisis, A sense of detachment, a feeling of loss surrounds me. Every morning i feel delusional. I feel like waking from a dream and entering another dream, a dream more controlled by me and thus more painful. I feel like standing in a hall with some chambers in it, whenever i enter a chamber and try to get myself out i end up in the same chamber and whenevr i try to move out through last chamber i again end up in the same big hall with same number of chambers in it and same question haunts me. No matter how much i be oblivious i have to enter a chamber to finally forsake the place or i'll have to just wait..wait for my Theseus...come slay me!! redeem me!!
Every dream i enter gives me a grain of sand, i see it every time i wake up and see it multiplying..1..2..6....handfull....buried under the debris trying to escape and everytime the silence screams to write and screaming reaches a crescendo just like the weight of sand reaches a crushing point, a point where the weight is unbearable and suffocating....... during my sufferings the mother of all questions strucked to me... WHY??? the most important question ever devised and ever asked my mankind!! Question that defines humans... question that incurs the wrath of higher beings mostly, and thus i began to ponder why anyone writes??? To communicate, to share, to be felt or more importantly to be understood. To let Minotaur run away from the labyrinthine heart, to wreak havoc on the madness of men and to find a dagger for realizing immortality for oneself.
                         And thus today i start my journey of writing, i start my way of exhibiting madness and thus creating a sense of madness in anyone who reads it and letting everyone to find some sanity inones madness and vice versa.
                    Amen. Happy Mad Mumbling!!