Friday, January 24, 2014

कालिख

कैसी ख़बर थी वो। कौमा, फुल-स्टॉप तक चीख़ रहे थे। लफ़्ज़ मानों अख़बार के पन्ने से निकल कर भागना चाह रहे थे। शायद वो ऐसा करने भी लगे थे। आँखें भीगने लगीं थीं। सीने में दर्द जो उठने लगा था। शब्द आज अख़बार छोड़ के कहीं और पैबस्त हो रहे थे। 

यह कह पाना मुश्किल था कि ख़बर ज़यादा काली थी या उसमें लिखे गए हर्फ़। रात ने बेबसी में आंसू बहाये थे। स्याही में रात का अंधेरापन साफ़ झलक रहा था। लगता है उस रोज़ सुबह हुयी ही नहीं थी, रात पिघल गयी थी।

ख़बर पढ़ने के बाद आईने में देखने कि हिम्मत नहीं हुयी। शक्ल पे कालिख जो पुत गयी थी। हर्फ़ उधड़-उधड़ के चेहरे पे जो चिपक गए थे।

ऐसी ही न जाने कितनी सुबहें नहीं हुयीं, न जाने और कितनी रातें पिघलेंगी ?

Sunday, January 12, 2014

On Meanings

पहले कुछ चीज़ों के मायने इतने ठोस नहीं थे। उनमें सन्दर्भ का लचीलापन था। मगर तुमसे मिलने और बिछड़ने के बाद कुछ चीज़ों के मायनों में सख़्ती आ गयी है।

अब जब भी चाय की कांच वाली छोटी गिलास देखता हूँ, तो इंतज़ार की वो घड़ियाँ याद आतीं हैं, जिनको मैंने तुम्हारे कॉलेज की गेट पे चाय की दुकान में गुज़ारी थीं। उन प्यालिओं में मैं चाय की चुस्की कम लेता था, और वक़्त को ज़्यादा गटकता था। अब भी किसी चाय की दुकान में चाय पीता हूँ, तो लगता है किसी का इंतज़ार कर रहा हूँ। 

यही हाल जब दिल्ली की बसों में टिकट लेता हूँ तो होता है। हमेशा दो टिकट लिया करता था। आज भी कभी कभार दो टिकट ले लेता हूँ। एक अपने लिए और एक उन यादों के लिए, जिनको वक़्त ने कारीगरी से टिकटों में तब्दील कर दिया है।   

टेनिस की गेंद अक्सर मैं पड़ोस के आँगन में फ़ेंक देता हूँ, और दरवाज़ा खटखटा कर मांग लेता हूँ। उम्मीद रहती है कि तुम शायद लौटाने आओगी। ऐसा मैं गेंद के उकसाने पे ही करता हूँ। लेकिन थोड़ी बहुत उम्मीद मुझे भी रहती है। 

न जाने और कितने चीज़ों पे संस्मरण के छाप पड़ेंगे ?

न जाने वक़्त के धब्बे और कितने मायनों को धुँधला करेंगे ?

अच्छा हुआ तुम जल्दी ही बिछड़ गयी, नहीं तो मेरी तंग दुनिया में चीज़ों के मायनों की भारी तंगी हो जाती।