Wednesday, January 30, 2019

इतिहास

इतिहास समय की आत्मा है।
इतिहास का रचयिता 
समय का शरीर।

बाकी सब समय के पुर्ज़े हैं
हिलते-डुलते रहते हैं
अपनी - अपनी दुनिया में

वो अक्सर पीछे छूट जाते हैं
जो चाहते हैं
समय से कदम मिलाकर चलें।

समय चोट देकर
आगे बढ़ जाता है
चुपचाप।
फिर भटकते रहते हैं
खोये समय की तलाश में।

इनकी चोट, इनका दर्द, इनकी नाक़ामियाँ
समय का ईंधन हैं
समय इनमें जलता है
निरंतर चलता है
खोजता है शरीर वो
समा सके जिनमें
ज़माने की उम्मीद वो

और जब....  समय
अपनी आत्मीयता पा लेता है
वो छण ऐतिहासिक हो जाता है। 

Monday, January 21, 2019

दीवार पे चिपके पोस्टर

कभी - कभी लगता है,
ज़िन्दगी दीवार पे चिपके पोस्टर की तरह उखड़ जाएगी।
और छिपी सतह को
दुनिया के सामने लाकर खड़ा कर देगी।
फिर तसल्ली भी होती है,
यह सोचकर, कि वक़्त ने दीवार पर,
पोस्टर पे पोस्टर चिपकाएँ  हैं।
अगर कुछ उखड़ भी गए,
तो कई और सामने आ जायेंगे।
दीवार जस की तस छिपी रहेगी,
सूनी न रहेगी, आबाद रहेगी।
पर हर पोस्टर उखड़ने के बावजूद,
अपना एक वजूद,
एक खरोंच के तौर पर ही सही,
दीवार पर छोड़ जाता है।
वो  खरोंच हमें दिखाई देता है,
कभी-कभी सुनाई भी देता है।
हम सोचते हैं,
कभी यहाँ कोई पोस्टर रहा होगा,
कोई ज़िन्दगी इस दीवार पे भी चिपकी होगी...

Saturday, January 5, 2019

नया - पुराना

एक रास्ता 
जिसपे मैं पहली बार चलूँगा 
कुछ रास्ते ऐसे भी 
जिनपे मैं शायद 
आख़री दफ़े चल आया हूँ।

क्या नए रास्ते पे चाल 
कुछ बदल जाएगी 
या पुराने रास्ते जिनपे 
मैं गर दोबारा चलूँ 
बदली चाल से नया होगा ?

क्या मैं उन रास्तों को 
जिनपे मैं चल आया हूँ 
अपनी चाल, अपने क़दम में 
सदा संभाल न रखूँगा ?
वो मेरे क़दमों तले
बिछते न जायेंगें?

फिर क्या कुछ नया 
क्या पुराना होगा?

रास्ते मेरे जूते में क़ैद हैं 
मैं क़दम बढ़ाऊँगा  
वो रिहा होते जाएंगे 
छितरने लगेंगे 
पैरों के इर्द-गिर्द 
मानों ज़मीन से फूटे 
चश्में पे मैं खड़ा हूँ।

फिर मैं चलते जाऊँगा  
क़दम रास्ते बुनते जायेंगे 
नए-पुराने ऐसे सम्मलित होंगे जैसे 

सूखे पेड़ से 
लिपटा हुआ हरा लत्तड़

टूटे-फूटे से मकान में 
जगमगाती हुयी 
बड़ी एलसीडी टीवी 

     - ताबिश नवाज़ 

Wednesday, January 2, 2019

रात

बूँद-बूँद आसमान में
पसरती रात
शबाब पर चढ़ती रात।

अँधेरे  की चादर ओढ़े
जड़ कर उसमें चाँद-सितारे
आसमान का चेहरा ढकती रात।

तारों के हाथों में
थमाकर रौशनी
ज़र्रा-ज़र्रा पिघलती रात।

स्याही बनकर,
लफ़्ज़ बनकर
कोरे काग़ज़ पे चलती रात।

शाँत, गहरी
बूढ़ी-बूढ़ी सी
सुबह को तरसती रात।

सूरज की आहट पे,
चिड़ियों की चहचहाहट पे,
आसमान के चेहरे से आँचल सी सरकती रात।

बूँद-बूँद बिखरती रात