Monday, November 4, 2013

कैसे

भरे पेट से कविता
कैसे लिखी जाती है?
ढका बदन अफ़साना
कैसे बुनता है ?

कोई कैसे कोलाहल में
तपस्या करता है ?
कैसे ?
कैसे?

रज़ाई में लेट के
चेतना गर्म होती है क्या?
फिर कोई कैसे
इतने आराम से सोता है ?

कैसे समय से
ऊठ के काम पे जाता है
कैसे समय पे
पेट भरता है?

कैसे फ़ुर्सत में
बैठ कर
कविता और किस्सा लिखता है?
कैसे? आख़िर कैसे?

क्या मनुष्य की
सृजन शक्ति इतनी असीम है
कि वो घी में चुपड़ी रोटी खाते हुए भी
एक ग़रीब की अनन्त भूख की कल्पना कर ले?

क्या मनुष्य की
सृजन शक्ति इतनी व्यापक है
कि वो एक ऐसे भाई के बेबसी का अनुभव कर ले
जो अपनी छोटी बहन को स्नेह से किराने कीं दुकान पे लेकर जाता है
मगर दुकानदार से इशारों में
गुज़ारिश करता है
कि वो यह बोले कि
यह टॉफियां नहीं बल्कि दवाईआं हैं?

क्या मनुष्य की
सृजन शक्ति इतनी समर्थ है
कि उस माँ के शरीर का ताप माप सके
जो फीवर की हालत में
सड़क पे रोड़े बिछाती है
और दिहाड़ी मिलने पे
घंटो यह तय नहीं कर पाती
कि वो रोटी ख़रीदे या दवा ?

तो फिर कोई कैसे
वाइन का प्याला मेज़ पे रख के,
कान पे मफलर लपेट के
वातानकूलित कमरे में बैठ के
किस्से-कहानियाँ लिखता है?

आख़िर कैसे? मैं पूछता हूँ कैसे?