Monday, October 7, 2013

मेरी कलम

मेरे पास एक कलम है - नीली स्याही की I अपनी नौकरी से मिलने वाली तनख़्वाह से पैसे बचा कर मैंने उसे ख़रीदी थी I उसे मैं हमेशा अपनी कमीज़ के बायीं जेब में रखता हूँ  I वो रोशनाई वाली कलम है I

उसी नौकरी से मैं कभी - कभार वक़्त चुराया करता था I और चुराए हुए वक़्त को लोगों से छुपा कर, कलम में क़ैद कर लिया करता था I उस क़ैद में मेरे वक़्त ज़्यादा आज़ादी महसूस किया करते थे I मैं जब उस कलम को पकड़ कर काग़ज़ पर घसता था, वक़्त झूमते हुए, लफ़्ज़ों की उँगलियाँ थामें बाहर आ जाते थे I सफ़ेद काग़ज़ के टुकड़ों पे वो घंटों नाचते और गाते थे I सफ़ेद काग़ज़ लफ़्ज़ों की पुताई से रंगीन हो जाता था I

धीरे - धीरे वक़्त की चोरियाँ बढने लगीं I और उसके साथ ही कलम की ख़ुराक I मैं अपनी तनख़्वाह के बचाए हुए रकम से एक शीशी रोशनाई की लाता था I कलम बड़े चाव से उसे गटकती थी I थोड़ा मेरे हाथों को भी पिलाती थी I कलम अपने दोस्त को पहचानती थी I और दोस्ती निभाना भी जानती थी I

फिर एक रोज़, एक ख़ास किस्म का वक़्त मेरे कलम में आया I उसने मुझे ज़िन्दगी में आगे बढ़ने का नुस्खा बताया I कहा, ले चलूँगा ऐसी दुनिया, जहाँ सुईओं का भाला लिए, घड़ी वक़्त की पहरेदारी नहीं करता I जहाँ वक़्त घड़ी से आज़ाद है I जहाँ कोई उन्हे चुराता नहीं I मौजूदा नौकरी से बिलकुल परे है वो दुनिया I मैने उसकी ऊँगली पकड़ी और निकल पड़ा उस दुनिया की ओर I

मैंने कलम को भी साथ ले जाने का फ़ैसला किया I सफ़र हवाई था I मैने कलम को बहुत एहतियात के साथ पैक किया I बचपन में पढ़ा था, हवाई जहाज़ में कलम की स्याही बह जाती है I मैं अपने चुराए हुए लम्हों की क़ीमत जानता था, उसे मैं ऐसे ही हवा में बिखेरना नहीं चाहता था I इसलिए कलम को मैने सलीके से अपने ब्रीफ़केस में पैक कर दिया I उसकी ख़ुराक का ख़्याल करते हुए, एक शीशी रोशनाई की भी ख़रीद ली I

जहाज़ तो मेरा ज़मीन पे उतर गया, मगर पैरों के नीचे ज़मीन नहीं मिली कुछ दिनों तक I वक़्त ना ही चुराया, ना ही चुराने की ज़रुरत महसूस हुयी I क्योंकि वहां वक़्त ही वक़्त था I नहीं थी तो ज़मीन I अपनी ज़मीन को तो मैं वक़्त की आस में पीछे छोड़ आया था I बेघर हो गया था मैं I और घर भला इन दोनों के बिना कहाँ बनते हैं ?

वक़्त और मैं, दिन भर बस बैठे रहते I कभी कभी सर्दी बढ़ती तो मौजूदा वक़्त मेरे पैताने लेट जाता I मैंने पुराने चुराए हुए लम्हों के मकान में - जिनको कलम ने काग़ज़ पे, लफ़्ज़ों की ईंट से बनाया था - बैठ के सर्द रात गुज़ारी I ज़मीन की ग़ैर मौजूदगी में भी मैंने घर का लुत्फ़ उठाया I

वक़्त और गुज़रा, मैंने भी उसके साथ चलना सीख लिया I मेरी भी रफ़्तार बढ़ी I और ज़मीन धीरे - धीरे पैरों के नीचे आने लगी I मगर अब वक़्त फिर से फिसलता है I उसे चुराने की ख्वाहिश होती है I इसी उम्मीद में मैंने अपना ब्रीफ़केस खोला और अपना कलम निकाला I

चुराए हुए वक़्त लगता है ख़त्म हो गयें हैं I क्यूंकि कलम में रोशनाई तो भरी है, फिर भी लफ़्ज़ों का दामन थामे कोई नहीं आता I मैं फिर भी मन को बहलाने के लिए उसमें और रोशनाई भर देता हूँ I रोशनाई कलम से निकल कर मेरे कमीज़ में लग जाती है I कलम इस बार मेरे हाथों की ओर मुख़ातिब नहीं हुयी I शायद नाराज़ है उनसे I मैं कलम को ज़ोर से झाड़ता हूँ I स्याही की बूँदें किसी मिलिट्री परेड की तरह कमरे की दीवारों पे सीधी कतार में खड़ी हो जाती हैं I

इसके बाद कलम थोड़ी देर चलती है I मगर बड़ी परेशानी से I लिखाई मध्धम होती है, फिर रुक जाती है I

अभी भी मैं इसे बायीं ओर जेब में रखता हूँ I मानता हूँ शायद दिल के धड़कनों से इसके अपने कुछ तार खुलें I जो कुछ चुराए हुए लम्हें या अनुभव जो उन तारों में फंसें हों, लफ़्ज़ों की डोर पकड़े, सफ़ेद काग़ज़ों पे आकर, मेरे लिए कुछ कपड़े बुन दें I सुना है स्नो गिरने वाला है I कपड़ों की ज़रुरत पड़ेगी......