Monday, February 2, 2015

शहर के कीचड़

कमरे की खिड़की पे
आंसूओं के धब्बे थे
रात बारिश की बूँदों से
वो धब्बे धुल गए
दफ़्न आंसू ज़िंदा हुए
बारिश के साथ बह गए
रेंगते हुए मिट्टी में मिल गए ।

शहर के कीचड़
मेरे आँसूओं के हैं
सूखी मिट्टी बन कर लगे हैं
मेरे जूतों पर
जिन्हें पहन रोज़ाना मैं दफ़्तर जाता हूँ । 

शहर में लोग आंसूओं पे चलते हैं
मुझे शहर में चलने में तक़लीफ़ होती है  
मुझे इस शहर से ले चलो
शहर के कीचड़
आँसूओं के हैं ।

यह कविता शार्लस् बौडेलियर की कविता "ग्रीविंग एंड वांडरिंग" से प्रेरित है ।