Friday, September 27, 2019

बम्बई

विरोधाभास का शहर
दबे एहसास का शहर
समन्दर में बसा हुआ
सपनों में फँसा हुआ
बेचैन, बदहवास सा शहर।

कहीं किलकारियों से खनकता हुआ
कहीं सिसकियों से छनकता हुआ
सैकड़ों तमन्नाओं को संजो कर
मुस्कुराता निराश सा शहर।

मंटो का शहर
ग़ुलज़ार का शहर
साहिर के टूटे मज़ार का शहर
कहीं जाने की चाह में
खड़ा करता इंतज़ार सा शहर।

ज़मीं में बिखरे सितारों का शहर
टैक्सी पे लिखे नारों का शहर
नींद में चलता हुआ
चॉल में खड़े क़तारों का शहर।

यह शहर अब मुझमें बसने लगा है
शब्द बन ज़ेहन में पनपने लगा है
देखता हूँ जब भी, दिल में उतर आता है
यह ख़ाली ज़मीन पे घर बनाने का हुनर जानता है।
                                                          - ताबिश नवाज़ 'शजर'

Saturday, July 6, 2019

एक ग़ज़ल

दर्द को जो ज़बाँ मिले
इस वजूद को नामो - निशाँ मिले

जिन बातों में चमकती हो उदासी
उस चमक से रौशन जहाँ मिले

और जब आँहों से उठने लगे सदा सी
उन सदाओं को ग़ज़ल से बयाँ मिले

तर तन्हा करते हैं जो दिल की सुर्ख़ मिट्टी
उनके आँसुओं को तर आँखों का मकाँ मिले

तमन्ना नहीं कि सुख़नवर कहलाऊँ
लिख लेता हूँ 'शजर' जो दो वक़्त तन्हा मिले

                           - ताबिश नवाज़ 'शजर' 

Sunday, June 30, 2019

मिथक

छूटते दोस्त
और छूटता जाता एक शहर
समय की धारा  पर
बहती ख़्वाहिशें
कुछ डूब जातीं
कुछ उभर आतीं
जो डूब जातीं उनसे
समय का घनत्व बना रहता
जो उभर आतीं उनसे
समय की गति।

बिछड़ते हुए बोली गयी बात
शब्द और आंसू का मिश्रण
कुछ बड़बड़ाहट, कुछ बेचैनी
सारे स्याह धब्बे
बैठे हुए चुपचाप
ख़ामोशी की सतह पर
बेमानी, बेमतलब
हमारे लफ़्ज़ कोरी वास्तविक्ता पर
मिथक।

जीवन यूँही मृत्यु की पीठ पे मचलता
समय की सतह पर संभलता
तैरते जाता,
एक शहर से दूसरे शहर
मिलता लोगों से
जैसे जल पे तेल
चमकता, सतरंगे जैसा दिखता
पर होता मिथक।









Friday, June 21, 2019

लोग

डरे - डरे लोग
मरे - मरे लोग

साँस लेते जैसे धूम्रपान करते
साफ़ पानी पीते ज़रे - ज़रे लोग

बीमारी से मौसम की पहचान करते
हर सीज़न में निपटते पड़े - पड़े लोग

कोसते फिरते किस्मत को, और
सर झुकाते जब देखते बड़े - बड़े लोग

सवाल सारे आसमान से, पर करते
प्रार्थना  सरकार से तरहे - तरहे लोग

खोखले अंदर से, फिर भी
लगते काफ़ी भरे - भरे लोग


Tuesday, April 2, 2019

एक मधुमक्खी मेरे घर में फँसी है

एक मधुमक्खी मेरे घर में फँसी है
भिनभिनाती, उड़ती जाती 
जैसे कुछ खोज रही है 
मैं दरवाज़े, खिड़कियाँ खोल देता हूँ 
यह निकल जाएगी, सोचता हूँ 
पर यह ऐसा करती नहीं है 
यह खुली खिड़की, दरवाज़े के पास आती 
फिर तेज़ी से पलट जाती  
किसी बात की इसे शिकायत है शायद 
लगता किसी को ढूंढ रही है 
एक मधुमक्खी मेरे घर में फँसी है 

वीकेंड्स पे मैं भी घर पे होता हूँ 
घर की चारदीवारी में बंद 
मैं भी बाहर निकलने का रास्ता टटोलता हूँ 
पर मैं भी जिसे ढूंढ रहा हूँ 
वो दरवाज़े के बाहर शायद नहीं है 
इसलिए मैं भी घर से निकल नहीं पाता 
दिन भर अंदर मंडराता 
कमरे से बालकोनी, सोफ़े से बिस्तर 
मानो मैं भी मधुमक्खी हूँ बन जाता 

मैं फिर भी उसे बाहर निकालने की कोशिश हूँ करता 
लेकिन जब वो नहीं निकलती तो थोड़ा अच्छा है लगता 
खिड़की मैं खोलता, पर मन ही मन हूँ मनाता 
कि वो न निकले
और यह खेल यूँही चलता रहे 
वीकेंड्स पे मन बहलता रहे 

दरअसल जो मेरे सीने में धड़कता है 
वो इसी मधुमक्खी का छत्ता है 
इसी से मिठास है थोड़ी 
इसी की खुशबू साँसों में बसी है 
एक मधुमक्खी मेरे घर में फँसी है

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                                         ताबिश नवाज़ 









Saturday, March 30, 2019

एक नज़्म

जब तलक तु रहा
दुनिया मुत्तासिर रही हमसे
हमें छूकर कसमें भी खाये गए
फिर जबसे तेरे साये गए
मत पूछ कितने ज़ुल्मों-सितम ढाये गए
क्या-ग़ुज़री जब बयाँ किया
तो झुटलाये गए
हम-दर्दी बस इतनी मिली
कि तक़लीफ़ मर्ज़-ए-फ़ितूर कहलाये गए।

ज़बाँ हमारी कान को तरसती थी
घटा उठती थी आँखों से बरसती थी
काई जमीं इन आँखों में
पर पोंछनें वाला कोई न था
ठिठुरते थे बारिश में हम
ओढ़ने को दुशाला कोई न था।

तेरे आमद की अब हम नज़्में गाते हैं
मन नहीं लोगों को बहलाते हैं
लौट आ
कि अब चमन में जगह तो नहीं
हम सड़कों पे ही खिल लेंगे
आ जा की नींद अब भी थोड़ी बाकी है
होश में न सही, हम ख़्वाबों में ही मिल लेंगे
आ जा ज़ख़्म हरा-भरा है अब तक
बग़ीचे न सही, फूल हमारे यहीं खिल लेंगे।
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                                                ताबिश



Tuesday, March 19, 2019

चाँद

चाँद सर-ए-आसमाँ जलता रहा
हमसफ़र बना, साथ चलता रहा

क़िस्से-कहानियाँ हमें सुनाता गया
स्याह रात में रौशनी, माथे पे मलता रहा

हम भी टकटकी लगाए उसे देखा किये
चाँद भी हमें रात भर तकता रहा

रास्ते पे चलते जब ठोकर लगी
उसे देखकर क़दम संभलता रहा

मंज़िल थी क्या, बस एक 'शजर' की छाँव
जिसकी शाख़ें हिलती रहीं, चाँद जिनमें मचलता रहा 



Monday, March 18, 2019

मन्नतें तो करते हैं ख़ुदा से बहुत मगर

मन्नतें तो करते हैं ख़ुदा से बहुत मगर
किसी से कोई फ़रियाद नहीं है

तंग हाथों से लुटाया हमने
देकर भूल गए, उन्हें लेकर याद नहीं है

कमाई कुछ ऐसे बचाते हैं हम
किताबें हैं  जायदाद नहीं है

तरबियत कुछ ऐसी मिली उससे
उसके ग़ुज़रने पे भी हद से आज़ाद नहीं हैं

'शजर' से पूछ लेना खड़े होने का राज़
गर मकाँ ऊँचा है और गहरी बुनियाद नहीं है

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                                                   ताबिश नवाज़ 'शजर'
[तरबियत = Teaching, Upbringing]

Thursday, March 14, 2019

सलाह

जलो कि प्रकाश हो
ह्रदय विस्तृत जैसे आकाश हो। 

लोगों से मिलो ऐसे कि जब न मिलो, 
तो तुम्हारी तलाश हो। 

पथ्थरों संग गर जीना पड़े 
तो जियो ऐसे कि कोई संगतराश हो। 

लफ़्ज़ साथ दें गर तो ही कुछ कहना 'शजर'
तुम ख़ामोशी से बात करने के नक्काश हो।

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                                               ताबिश नवाज़ 'शजर'

[संगतराश = Sculptor, संग = stone, तराश = to polish, to shape]
[नक्काश = Artist]



Saturday, March 9, 2019

दुआ

हर ज़बाँ को कान का सहारा मिले
कोई दोस्त मिले, कोई प्यारा मिले

हँसने में जो रो लेते हैं
दर्द बयाँ करने का उन्हे कुछ ईशारा मिले

नन्हे सपने समंदर में जब डूबते हों
कम-से-कम पानी न उन्हें खारा मिले

सरगोशी शोर बन जाये
ऐसा एक स्वर हमारा मिले

ज़ुल्म मिट जाये जहाँ से
उसके ख़िलाफ़ एक ऐसा नारा मिले

नफ़रत बाँट न सके
हमें मोहब्बत से जोड़ती एक ऐसी धारा मिले

क़ैद न रह जाएं महज़ काग़ज़ों में
कविताओं को चौक-चौराहों पे ग़ुज़ारा मिले

------------------------------ताबिश नवाज़




Wednesday, March 6, 2019

ऐसा वक़्त सुनहरा होगा

सुबह आएगी, सवेरा होगा
मंज़िलें मिलेंगीं, बसेरा होगा

सत्य आज़ाद होगा
सपनों पे ना कोई पहरा होगा

ख़ुदा, कानून से सब बेपरवाह होंगे
पर यक़ीं सभी को दिल में गहरा होगा

हवाओं से बेख़ौफ़ जलेंगें चराग़
उनके बुझने से न कभी अँधेरा होगा

ऐसी आबाद होगी रौशनी
ऐसा वक़्त सुनहरा होगा।

                --- ताबिश नवाज़


Tuesday, February 26, 2019

बारिश

कहीं किसी का दिल तड़पा है
जो बादल खिड़की पे आ गरजा है

छुपके आँसू बहाता है कोई
आसमाँ जो इस कदर बरसा है

कोई तन्हा ज़रूर है कहीं
जो बारिश में परिंदा उसे ढूंढता उड़ता है

विरह की आग में जलता है कोई शायद
बारिश का पानी इसलिए कितना ठंडा है

जिनसे कोई बात करने वाला नहीं है
सुनो! उनसे बारिश का पानी क्या कहता है

                                                  - ताबिश नवाज़ 

Sunday, February 24, 2019

ख़ून झलकता है जहाँ आँखों में
वहाँ नज़र साफ़ नहीं होती

इंसाफ़ जहाँ क़ीमती हो
वहाँ बरसात नहीं होती

पानी तो बरसता है, लोग मिलते भी हैं
पर मुलाक़ात नहीं होती

रौशनी से रौशनी मिल जाये तो क्या
अँधेरे की वफ़ात नहीं होती

बुझा दो आज चराग़ों को
अब वहाँ तेरी बात नहीं होती

जम जाओ मेरे लफ़्ज़ों
तुमसे अब वो बात नहीं होती

तुम पथ्थर बन जाओ, बरस पड़ो ज़माने पे
जहाँ रिश्तों में जज़्बात नहीं होते

'शजर' तु आज हँसता भी है और रोता भी, कुछ तो है,
वर्ना यह कैफ़ियत एक साथ नहीं होती

                                           - ताबिश नवाज़ 'शजर'

[वफ़ात = मौत; कैफ़ियत = हालत]

Wednesday, February 6, 2019

दिन

ठंडा और उदास दिन
बेचैन, बदहवास दिन।

बादलों से ढका हुआ
मैला सा लिबास दिन।

रोज़ाना घर से निकलता
यहीं कहीं आस-पास दिन।

दिल को मारता, पेट के लिए
करता दिनभर बकवास दिन।

शाम को आता, दरवाज़ा खोलता
लिए कल की आस दिन।

रात होते होते
कलम में भरता मिठास दिन।

उम्मीद से कहता
कल है तुम्हारे पास दिन।

नींद आ जाती, भले न आये
उस रोज़ रास दिन। 

Wednesday, January 30, 2019

इतिहास

इतिहास समय की आत्मा है।
इतिहास का रचयिता 
समय का शरीर।

बाकी सब समय के पुर्ज़े हैं
हिलते-डुलते रहते हैं
अपनी - अपनी दुनिया में

वो अक्सर पीछे छूट जाते हैं
जो चाहते हैं
समय से कदम मिलाकर चलें।

समय चोट देकर
आगे बढ़ जाता है
चुपचाप।
फिर भटकते रहते हैं
खोये समय की तलाश में।

इनकी चोट, इनका दर्द, इनकी नाक़ामियाँ
समय का ईंधन हैं
समय इनमें जलता है
निरंतर चलता है
खोजता है शरीर वो
समा सके जिनमें
ज़माने की उम्मीद वो

और जब....  समय
अपनी आत्मीयता पा लेता है
वो छण ऐतिहासिक हो जाता है। 

Monday, January 21, 2019

दीवार पे चिपके पोस्टर

कभी - कभी लगता है,
ज़िन्दगी दीवार पे चिपके पोस्टर की तरह उखड़ जाएगी।
और छिपी सतह को
दुनिया के सामने लाकर खड़ा कर देगी।
फिर तसल्ली भी होती है,
यह सोचकर, कि वक़्त ने दीवार पर,
पोस्टर पे पोस्टर चिपकाएँ  हैं।
अगर कुछ उखड़ भी गए,
तो कई और सामने आ जायेंगे।
दीवार जस की तस छिपी रहेगी,
सूनी न रहेगी, आबाद रहेगी।
पर हर पोस्टर उखड़ने के बावजूद,
अपना एक वजूद,
एक खरोंच के तौर पर ही सही,
दीवार पर छोड़ जाता है।
वो  खरोंच हमें दिखाई देता है,
कभी-कभी सुनाई भी देता है।
हम सोचते हैं,
कभी यहाँ कोई पोस्टर रहा होगा,
कोई ज़िन्दगी इस दीवार पे भी चिपकी होगी...

Saturday, January 5, 2019

नया - पुराना

एक रास्ता 
जिसपे मैं पहली बार चलूँगा 
कुछ रास्ते ऐसे भी 
जिनपे मैं शायद 
आख़री दफ़े चल आया हूँ।

क्या नए रास्ते पे चाल 
कुछ बदल जाएगी 
या पुराने रास्ते जिनपे 
मैं गर दोबारा चलूँ 
बदली चाल से नया होगा ?

क्या मैं उन रास्तों को 
जिनपे मैं चल आया हूँ 
अपनी चाल, अपने क़दम में 
सदा संभाल न रखूँगा ?
वो मेरे क़दमों तले
बिछते न जायेंगें?

फिर क्या कुछ नया 
क्या पुराना होगा?

रास्ते मेरे जूते में क़ैद हैं 
मैं क़दम बढ़ाऊँगा  
वो रिहा होते जाएंगे 
छितरने लगेंगे 
पैरों के इर्द-गिर्द 
मानों ज़मीन से फूटे 
चश्में पे मैं खड़ा हूँ।

फिर मैं चलते जाऊँगा  
क़दम रास्ते बुनते जायेंगे 
नए-पुराने ऐसे सम्मलित होंगे जैसे 

सूखे पेड़ से 
लिपटा हुआ हरा लत्तड़

टूटे-फूटे से मकान में 
जगमगाती हुयी 
बड़ी एलसीडी टीवी 

     - ताबिश नवाज़ 

Wednesday, January 2, 2019

रात

बूँद-बूँद आसमान में
पसरती रात
शबाब पर चढ़ती रात।

अँधेरे  की चादर ओढ़े
जड़ कर उसमें चाँद-सितारे
आसमान का चेहरा ढकती रात।

तारों के हाथों में
थमाकर रौशनी
ज़र्रा-ज़र्रा पिघलती रात।

स्याही बनकर,
लफ़्ज़ बनकर
कोरे काग़ज़ पे चलती रात।

शाँत, गहरी
बूढ़ी-बूढ़ी सी
सुबह को तरसती रात।

सूरज की आहट पे,
चिड़ियों की चहचहाहट पे,
आसमान के चेहरे से आँचल सी सरकती रात।

बूँद-बूँद बिखरती रात