मेरे पास एक कलम है - नीली स्याही की I अपनी नौकरी से मिलने वाली तनख़्वाह से पैसे बचा कर मैंने उसे ख़रीदी थी I उसे मैं हमेशा अपनी कमीज़ के बायीं जेब में रखता हूँ I वो रोशनाई वाली कलम है I
उसी नौकरी से मैं कभी - कभार वक़्त चुराया करता था I और चुराए हुए वक़्त को लोगों से छुपा कर, कलम में क़ैद कर लिया करता था I उस क़ैद में मेरे वक़्त ज़्यादा आज़ादी महसूस किया करते थे I मैं जब उस कलम को पकड़ कर काग़ज़ पर घसता था, वक़्त झूमते हुए, लफ़्ज़ों की उँगलियाँ थामें बाहर आ जाते थे I सफ़ेद काग़ज़ के टुकड़ों पे वो घंटों नाचते और गाते थे I सफ़ेद काग़ज़ लफ़्ज़ों की पुताई से रंगीन हो जाता था I
धीरे - धीरे वक़्त की चोरियाँ बढने लगीं I और उसके साथ ही कलम की ख़ुराक I मैं अपनी तनख़्वाह के बचाए हुए रकम से एक शीशी रोशनाई की लाता था I कलम बड़े चाव से उसे गटकती थी I थोड़ा मेरे हाथों को भी पिलाती थी I कलम अपने दोस्त को पहचानती थी I और दोस्ती निभाना भी जानती थी I
फिर एक रोज़, एक ख़ास किस्म का वक़्त मेरे कलम में आया I उसने मुझे ज़िन्दगी में आगे बढ़ने का नुस्खा बताया I कहा, ले चलूँगा ऐसी दुनिया, जहाँ सुईओं का भाला लिए, घड़ी वक़्त की पहरेदारी नहीं करता I जहाँ वक़्त घड़ी से आज़ाद है I जहाँ कोई उन्हे चुराता नहीं I मौजूदा नौकरी से बिलकुल परे है वो दुनिया I मैने उसकी ऊँगली पकड़ी और निकल पड़ा उस दुनिया की ओर I
मैंने कलम को भी साथ ले जाने का फ़ैसला किया I सफ़र हवाई था I मैने कलम को बहुत एहतियात के साथ पैक किया I बचपन में पढ़ा था, हवाई जहाज़ में कलम की स्याही बह जाती है I मैं अपने चुराए हुए लम्हों की क़ीमत जानता था, उसे मैं ऐसे ही हवा में बिखेरना नहीं चाहता था I इसलिए कलम को मैने सलीके से अपने ब्रीफ़केस में पैक कर दिया I उसकी ख़ुराक का ख़्याल करते हुए, एक शीशी रोशनाई की भी ख़रीद ली I
जहाज़ तो मेरा ज़मीन पे उतर गया, मगर पैरों के नीचे ज़मीन नहीं मिली कुछ दिनों तक I वक़्त ना ही चुराया, ना ही चुराने की ज़रुरत महसूस हुयी I क्योंकि वहां वक़्त ही वक़्त था I नहीं थी तो ज़मीन I अपनी ज़मीन को तो मैं वक़्त की आस में पीछे छोड़ आया था I बेघर हो गया था मैं I और घर भला इन दोनों के बिना कहाँ बनते हैं ?
वक़्त और मैं, दिन भर बस बैठे रहते I कभी कभी सर्दी बढ़ती तो मौजूदा वक़्त मेरे पैताने लेट जाता I मैंने पुराने चुराए हुए लम्हों के मकान में - जिनको कलम ने काग़ज़ पे, लफ़्ज़ों की ईंट से बनाया था - बैठ के सर्द रात गुज़ारी I ज़मीन की ग़ैर मौजूदगी में भी मैंने घर का लुत्फ़ उठाया I
वक़्त और गुज़रा, मैंने भी उसके साथ चलना सीख लिया I मेरी भी रफ़्तार बढ़ी I और ज़मीन धीरे - धीरे पैरों के नीचे आने लगी I मगर अब वक़्त फिर से फिसलता है I उसे चुराने की ख्वाहिश होती है I इसी उम्मीद में मैंने अपना ब्रीफ़केस खोला और अपना कलम निकाला I
चुराए हुए वक़्त लगता है ख़त्म हो गयें हैं I क्यूंकि कलम में रोशनाई तो भरी है, फिर भी लफ़्ज़ों का दामन थामे कोई नहीं आता I मैं फिर भी मन को बहलाने के लिए उसमें और रोशनाई भर देता हूँ I रोशनाई कलम से निकल कर मेरे कमीज़ में लग जाती है I कलम इस बार मेरे हाथों की ओर मुख़ातिब नहीं हुयी I शायद नाराज़ है उनसे I मैं कलम को ज़ोर से झाड़ता हूँ I स्याही की बूँदें किसी मिलिट्री परेड की तरह कमरे की दीवारों पे सीधी कतार में खड़ी हो जाती हैं I
इसके बाद कलम थोड़ी देर चलती है I मगर बड़ी परेशानी से I लिखाई मध्धम होती है, फिर रुक जाती है I
अभी भी मैं इसे बायीं ओर जेब में रखता हूँ I मानता हूँ शायद दिल के धड़कनों से इसके अपने कुछ तार खुलें I जो कुछ चुराए हुए लम्हें या अनुभव जो उन तारों में फंसें हों, लफ़्ज़ों की डोर पकड़े, सफ़ेद काग़ज़ों पे आकर, मेरे लिए कुछ कपड़े बुन दें I सुना है स्नो गिरने वाला है I कपड़ों की ज़रुरत पड़ेगी......
उसी नौकरी से मैं कभी - कभार वक़्त चुराया करता था I और चुराए हुए वक़्त को लोगों से छुपा कर, कलम में क़ैद कर लिया करता था I उस क़ैद में मेरे वक़्त ज़्यादा आज़ादी महसूस किया करते थे I मैं जब उस कलम को पकड़ कर काग़ज़ पर घसता था, वक़्त झूमते हुए, लफ़्ज़ों की उँगलियाँ थामें बाहर आ जाते थे I सफ़ेद काग़ज़ के टुकड़ों पे वो घंटों नाचते और गाते थे I सफ़ेद काग़ज़ लफ़्ज़ों की पुताई से रंगीन हो जाता था I
धीरे - धीरे वक़्त की चोरियाँ बढने लगीं I और उसके साथ ही कलम की ख़ुराक I मैं अपनी तनख़्वाह के बचाए हुए रकम से एक शीशी रोशनाई की लाता था I कलम बड़े चाव से उसे गटकती थी I थोड़ा मेरे हाथों को भी पिलाती थी I कलम अपने दोस्त को पहचानती थी I और दोस्ती निभाना भी जानती थी I
फिर एक रोज़, एक ख़ास किस्म का वक़्त मेरे कलम में आया I उसने मुझे ज़िन्दगी में आगे बढ़ने का नुस्खा बताया I कहा, ले चलूँगा ऐसी दुनिया, जहाँ सुईओं का भाला लिए, घड़ी वक़्त की पहरेदारी नहीं करता I जहाँ वक़्त घड़ी से आज़ाद है I जहाँ कोई उन्हे चुराता नहीं I मौजूदा नौकरी से बिलकुल परे है वो दुनिया I मैने उसकी ऊँगली पकड़ी और निकल पड़ा उस दुनिया की ओर I
मैंने कलम को भी साथ ले जाने का फ़ैसला किया I सफ़र हवाई था I मैने कलम को बहुत एहतियात के साथ पैक किया I बचपन में पढ़ा था, हवाई जहाज़ में कलम की स्याही बह जाती है I मैं अपने चुराए हुए लम्हों की क़ीमत जानता था, उसे मैं ऐसे ही हवा में बिखेरना नहीं चाहता था I इसलिए कलम को मैने सलीके से अपने ब्रीफ़केस में पैक कर दिया I उसकी ख़ुराक का ख़्याल करते हुए, एक शीशी रोशनाई की भी ख़रीद ली I
जहाज़ तो मेरा ज़मीन पे उतर गया, मगर पैरों के नीचे ज़मीन नहीं मिली कुछ दिनों तक I वक़्त ना ही चुराया, ना ही चुराने की ज़रुरत महसूस हुयी I क्योंकि वहां वक़्त ही वक़्त था I नहीं थी तो ज़मीन I अपनी ज़मीन को तो मैं वक़्त की आस में पीछे छोड़ आया था I बेघर हो गया था मैं I और घर भला इन दोनों के बिना कहाँ बनते हैं ?
वक़्त और मैं, दिन भर बस बैठे रहते I कभी कभी सर्दी बढ़ती तो मौजूदा वक़्त मेरे पैताने लेट जाता I मैंने पुराने चुराए हुए लम्हों के मकान में - जिनको कलम ने काग़ज़ पे, लफ़्ज़ों की ईंट से बनाया था - बैठ के सर्द रात गुज़ारी I ज़मीन की ग़ैर मौजूदगी में भी मैंने घर का लुत्फ़ उठाया I
वक़्त और गुज़रा, मैंने भी उसके साथ चलना सीख लिया I मेरी भी रफ़्तार बढ़ी I और ज़मीन धीरे - धीरे पैरों के नीचे आने लगी I मगर अब वक़्त फिर से फिसलता है I उसे चुराने की ख्वाहिश होती है I इसी उम्मीद में मैंने अपना ब्रीफ़केस खोला और अपना कलम निकाला I
चुराए हुए वक़्त लगता है ख़त्म हो गयें हैं I क्यूंकि कलम में रोशनाई तो भरी है, फिर भी लफ़्ज़ों का दामन थामे कोई नहीं आता I मैं फिर भी मन को बहलाने के लिए उसमें और रोशनाई भर देता हूँ I रोशनाई कलम से निकल कर मेरे कमीज़ में लग जाती है I कलम इस बार मेरे हाथों की ओर मुख़ातिब नहीं हुयी I शायद नाराज़ है उनसे I मैं कलम को ज़ोर से झाड़ता हूँ I स्याही की बूँदें किसी मिलिट्री परेड की तरह कमरे की दीवारों पे सीधी कतार में खड़ी हो जाती हैं I
इसके बाद कलम थोड़ी देर चलती है I मगर बड़ी परेशानी से I लिखाई मध्धम होती है, फिर रुक जाती है I
अभी भी मैं इसे बायीं ओर जेब में रखता हूँ I मानता हूँ शायद दिल के धड़कनों से इसके अपने कुछ तार खुलें I जो कुछ चुराए हुए लम्हें या अनुभव जो उन तारों में फंसें हों, लफ़्ज़ों की डोर पकड़े, सफ़ेद काग़ज़ों पे आकर, मेरे लिए कुछ कपड़े बुन दें I सुना है स्नो गिरने वाला है I कपड़ों की ज़रुरत पड़ेगी......
काफी दिन बाद तुम्हारी कलम से लिखा कुछ पढने को मिला. और विडम्बना ये की तुमने कलम की तुमसे नाराज़गी के बारे में लिखा :)
ReplyDeleteकहने की जरुरत नहीं है की बातें दिल को छू गयी. "अभी भी मैं इसे बायीं ओर जेब में रखता हूँ I मानता हूँ शायद दिल के धड़कनों से इसके अपने कुछ तार खुलें I" -- क्या खूब!
Arun ne sahi kaha... Ekdum dil ko chuu gyi hai tumhari kalam se nikali ye waqt ki sihayi....
ReplyDeleteI hope ki jald hi tumhen nyi zameen mil jaye aur kalam mein nyi sihayi bhari ho...
Thanks Arun and Anurodh brother!!
ReplyDeleteAppreciated :)
बहुत हीं उम्दा रचना है. जीवन की इस परिस्थिति को इतनी बारीकी से देखना बिल्कुल अलग है, और उससे भी बढ़ कर है उसे पेश करने का ढंग, जो की वाकई में लाजवाब है. आशा करता हूँ कि तुम्हारी कलम हमेशा चलती रहे.
ReplyDeleteशुक्रिया मित्र ! तुम्हारे शब्द काफ़ी प्रोत्साहित करते हैं I आगे भी हौसला बढ़ाते रहना I
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