Tuesday, May 29, 2012

ठहाके



कुछ एक वाकयात ऐसे भी देखें हैं जिस पर पहला 'रेस्पोंस' हंसी के ठहाकों का रहा है I सोचता हूँ तो 'अलिफ़ लैला' के जिन्नों या 'रामायण' के राक्षसों की भी याद आ जाती है I लेकिन जब लफ़्ज़ों का पिंजड़ा टूटा है तो सिर्फ बेबस, परकटे चिड़ियों के सिवा उन लम्हों में मैने कुछ नहीं पाया है I या यूँ कह लीजिये कि ठहाकों और दर्द के चिहुंक का फ़ासला कुछ इतना रहा है जितना कि एक तीर को कमान से निकलने और निशाने पे पैबस्त होने में लगता हो I यहाँ मैं वैसे तीन प्रसंगों को रखना चाहूँगा I हो सकता है कुछ एक बातें सवेंदनशील हों या फुहश या अश्लील भी हों, मगर सच मानिए हकीक़त ही ऐसी है I धैर्य, विवेक और 'ह्यूमर' से काम लीजियेगा I

 (1.)

मई का महिना था I सूरज आसमान से पिघल कर गिर रहा था I गरम हवा जिस्म को निम्बू की तरह निचोड़ रही थी I मैं जमशेदपुर स्टेशन पर खड़ा खड़गपुर लोकल का इंतज़ार कर रहा था I इंतज़ार की बेचैनी और गर्मी हर मिनट बढते ही जा रहे थे I तभी एक भिकारिन-अपने बच्चे को बगल में चिपकाये-मेरे आगे आकर खड़ी हो गयी I मैने कुछ छुट्टा निकाल के उसे दे दिया I फिर वो बगल में बैठे एक अंकल के पास गयी I अंकल अचानक से बोले-"नौटंकी करेगी!" "कुछो हुआ नहीं कि भीख मांगे ला चली आयी I" अंकल चालू रहे-"गरीबी बुझती है ?" "गरीबी में ममता सूख जाती है, और ई जो पेटुक्की को सुटकैईले है, ओक्कर गालो चिपक जाता है I" "और इतना आराम से उहो नहीं रहता है, चिल्लाते रहता है, गरीबी में ओक्कर भूख भी बढ़ जाता है I" "और सूखले ममता को चूसते रहता है I" " गालो देखा लईका के कितना फुलल है, तुहो देखो तोहरा भी कितना फुलल है, पिलाती काहे नहीं है रे इसको I" इतना बोलना था कि मैं ठहाकों से फूट पड़ा I आज भी ठहाकों की गूंज सुनायी देती है और, तकलीफ़ से मन भर जाता है I क्या ग़रीब का ग़रीब होना काफ़ी नहीं जो उसे ग़रीब दिखना भी चाहिए I क्या उसका हाथ फैलाना काफ़ी नहीं जो उसके हाथ कमज़ोर और बेबस दिखने भी चाहिए I हम अमीरी का दिखावा कर सकते हैं,ख़ुशी का ढोंग कर सकते हैं, पर ग़रीबी, लाचारी और बेबसी का नहीं I हम नकली हंसी तो पहन सकते हैं पर आंसुओं को नहीं I भला आंसुओं से 'प्योर' भी कुछ हुआ है ?    

(2.)              

शाम का वक़्त हो रहा था I अम्मी भी दिन से ही सब्ज़ी ख़रीद के लाने के लिए पीछे पड़ी हुईं थीं I मैं सब्ज़ी लाने बाज़ार निकल गया I वहां एक शराब की दुकान थी I सब्ज़ी वाली शराब की दुकान के आगे ही सब्ज़ी बेचती थी I एक नौजवान एक सिपाही के साथ शराब की दुकान पे आया I सिपाही-"कौन सा है जी ?" युवक ने एक बोतल की और इशारा करते हुए कहा-"यह वाला I" सिपाही ने 'ऑथोरिटी' से बोला-"हाँ रे निकालो इ वाला!" "कितने का है?" दुकानदार ने जिहुज़ुरी अंदाज़ में सत्तर रुपये बताये I सिपाही थोड़ा और ऊंची आवाज़ में बोला-" हाँ पचास रुपये दे दो I" दुकानदार पचास में देने से इंकार करने लगा I सिपाही भी पूरे ज़ोम में आ गया और शराब की बोतल पटक दी, और उसकी माँ-बहन को याद करते हुए बोला-"नहीं पियेंगे, ऐसा है तो नहीं पियेंगे I" ऐसा बोलते हुए वो चला गया I शराब की छींटें सब्ज़ी पे पड़ीं और बोतल का टुकड़ा उस बेचारी ग़रीब के सर पर लगा I शराब पड़ जाने की वजह से मैं सब्ज़ी लौटाने लगा I हमदर्दी जताते हुए मैने पुछा -"ज़्यादा ज़ोर से तो नहीं लगी न ?" सब्ज़ी वाली ने मुझपे गरम होते हुए बोला - "बेसी बक्तूति न करियाह, लेबे ला है तो लो, न तो जो!" शराब की दुकान वाला झाड़ू लगा कर कांच साफ़ कर रहा था I वो ठहाके मारने लगा और ठिठियाते हुए कहता है-"इहो आज चढ़ायेले है I" मुझे भी हंसी आ गयी I मैं हंसते हुए आगे बढ़ गया I हंसी जब हवा हुयी तो एहसास हुआ कि इस बाज़ार में हर कोई 'आउट' है I सिपाही ताक़त के नशे में चूर है, दुकानदार मुनाफ़े के नशे में और मैं मज़हब के नशे में, तब ही तो मुझे दो किलो सब्ज़ी में दो बूँदें शराब की ज़्यादा भारी लगीं I बेचारी का सर फटा, सब्ज़ी तौलाने के बाद नहीं बिकी, फिर भी मैने उस टिपण्णी पे हँसना बेहतर समझा, पता नहीं वो कैसा नशा था ?

(3.)

यह वाकया बचपन का है I मैं, मेरा भाई और मेरी बहन मेला घूमने गए थे I एक दुकान पे गेंद से निशाना साधने वाला खेल चल रहा था I सही निशाना लगने पे खिलौने इनाम में थे I एक आदमी काफ़ी देर से कोशिश कर रहा था I थोडा बेचैन और परेशान भी लग रहा था I हर नाकामयाब 'थ्रो' पे थोडा उत्तेजित भी हो जाता I मैं वहां खड़ा होकर सब देखने लगा I मुझे यह सब कोई नौटंकी लग रही थी I जब भी वो 'मिस' करता, शर्मिंदा होकर मेरी तरफ देखता और परेशान हो जाता I आखिरकार उसने 'हिट' कर ही दिया I इनाम में उसने हाथी माँगा I मगर दुकानदार ने यह कह कर नकार दिया कि तुमने 'लाइन' के आगे से 'थ्रो' फेंकी है I वो आदमी अड़ गया I काफ़ी देर बहस हुयी I मुझे अभी भी यह नाटक लग रहा था I और, मैं हंस रहा था I उसने दुकानदार के हाथ से हाथी छीन लिया और उसका हाथ ज़ोर से ममोर दिया I शायद उसने उसका हाथ तोड़ दिया था I धक्का देकर और, हाथी को दबोच कर वो भाग गया I दुकानदार ज़मीन पे गिरा दर्द से कराह रहा था और रो रहा था I मेले का कुछ ऐसा 'एक्सपिरिएंस' था मेरा कि मैं मेले में हर कुछ नौटंकी मानता था I आज भी लोग मुझे बोलते हैं की मैने खूब ताली बजाई थी दुकानदार के ज़मीन पे गिरने पे I सड़क चलते जब ठहाकों को सुनता हूँ तो एहसास होता है की आज भी मेलों को लेके मेरी धारणा बदली नहीं है, लगता है किसी की नहीं बदली है ?
 
    

Sunday, May 13, 2012

आपबीती


 कल भारत-पाकिस्तान का क्रिकेट मैच हुआ था। हालांकि नतीजा नागवार रहा पर सामान्य जन-जीवन पर इसका कोई असर नहीं पड़ा। मेरे मामा-चाचा कहते हैं कि एक दौर था जब भारत-पाकिस्तान के मैच में दो गुटों, मोहल्लों, दोस्तों और अक्सर तो एक ही घर के सदस्यों में तना तनी हो जाती थी-एक वाकया तो बाप का बेटे को घर से निकालने का भी है। वतनपरस्ती और गद्दारी के हवाले भी दिए जाते थे।

उस ज़माने में ज़्यादा एलेक्ट्रोनिक्स गैजेट्स तो थे नहीं, इसलिए जो भी एकाध टीवी सेट्स होते थे वो चौक-चौराहे की शोभा बढाते थे। इस बहाने लोगों का मिलना भी हो जाता था। पटाखों वालों की तो मौज होती थी। हो भी क्यूं ना, कम्मेंट्री जो इनकी भाषा में होती थी।चौके के लिए अलग आवाज़ का पटाखा, छक्के का थोड़ा तेज़ और विकेट गिरने पे रॉकेट का गिनगिनाना। गली चौराहे पे जब आदमियों की इतनी भीड़ हो तो भला कुत्ते कहाँ चुप बैठने वाले, वो भी भौंकते रहते थे। और, कभी कभी तो कुत्तों में लड़ाई भी हो जाती थी। पर ऐसा तो कुछ भी नहीं दिखा मुझे। शायद लोगों के पास अब इतना वक़्त नहीं है कि दूसरों की पसंद-नापसंद जानें, या फिर गैजेट्स वगैरह इतनी प्रचुर संख्या में लोगों के पास उपलब्ध है कि सबको एक साथ सड़क चौराहे पे इकठ्ठा कर दें तो आदमी कम और सामान ज़्यादा हो जायेंगे, झूठमूठ की परेशानी हो जाएगी और तो और, सब इतने महंगे दामों में खरीदे गयें हैं कि उनका इस्तेमाल करना भी ज़रूरी है-पैसा है वक़्त नहीं-इसलिए जो भी वक़्त मिलता है आदमी पैसे से खरीदी हुई चीज़ों पे बिताना पसंद करता है। या फिर यह भी हो सकता है कि लोग अब पहले के अपेक्छा ज़्यादा लिबरल और टॉलरेंट हो गयें हैं? और, इन सब मामलों में ज़्यादा प्रतिक्रिया नहीं व्यक्त करना चाहते हैं। लोग ज़्यादा देशभक्त हो गयें हों, यह भी एक संभव कारण हो सकता है या फिर लोग अब क्रिकेट को देशभक्ति से ज़्यादा जोड़ते हों? हो यह भी सकता है कि कुछ लोग डर रहें हों, दूसरों की भावना का ख़्याल कर रहें हों, अपने दिल की बात जुबां पे नहीं ला पा रहें हों?
सवाल ही सवाल थे। मैं इसी मानसिक उधेड़बून में उलझा हुआ अपनी क्लास में दाखिल हुआ। वहां मैच की ही चर्चा हो रही थी। समीर मुझे आता देख बोला "और, कल तो तुम बहूत खुश हो गए होगे। " अपने आप ही मेरी सवालों की गठरी से एक सवाल निकल गया "क्यूं?" "जीत गयी तुम लोगो की टीम "-समीर ने जवाब दिया। अमर और विजय ने समीर की इस टिपण्णी पे खिंचाई कर दी। मैं कुछ नहीं बोला और पानी पीने बाहर निकल गया। रास्ते में मेरा दूसरा सहपाठी समिर मिला। मुझे कोने में लेते हुए बोला-"भाई कल मैच देखा?" मैने हामी भरी। "मज़ा आ गया भाई, मल्लिक भाई ने मचा दिया । "
मैं फिर चुप रहा, क्या बोलता मैं?