Sunday, April 20, 2014

अजीब दौर-ए -गुज़र है

अजीब दौर-ए -गुज़र है
बेटा बाप से
ज़्यादा तंग नज़र है।  

बच्चों के चेहरों पे 
उम्र दराज़ी तारी है
नौजवानों के उसूलों पे 
नफ़ा-नुकसान भारी है।  

परिंदे अब घोंसला  
दीवारों पे बनाते हैं
उन्हे भी अब 
सबा से बेज़ारी है। 

फलों में ख़ुशबू नहीं
ज़ायका नहीं
सबको बाज़ार में 
क़ीमत पाने की बेकरारी है। 

दरख़्त की परछाईयाँ
अब जिस्मों पे नहीं पड़तीं
मकानों के सायों में
अब उनका बसर है। 

अजीब दौर-ए-गुज़र है। 

  

6 comments:

  1. Quiet crisp yet an elaborated description of present scenario...The race which everyone is running but don't know excatly where we are heading..Really thought provoking.
    Keep it up....

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