वो दुनिया से छुपा फिर
रहा है। काफ़ी बेज़ार हो चुका है। एक दिन कमरे में ख़ुद को
बंद कर लेता है। कुछ किताबें भी हैं उसके
पास।
उनको वो अलग-अलग तरीकों से पढ़ता है। दायें से बाएँ से, नीचे से ऊपर से। कभी कुछ ख़ास पन्नों को दिन भर पढ़ता है, तो कभी कुछ ख़ास लफ़्ज़ों को। कहता है दुनिया, जिसके रूप से वो परेशान है, और जिसे वो नया आकार देना चाहता है और जिससे वो भाग रहा है, उसको इन अलग-अलग तरीकों से पढ़ कर हमेशा नयी शक्ल में देख पाता है। उस चारदीवारी में वो अपनी अलग दुनिया बसा लेता है। किताबों को उलट-पलट कर उसको वो बदलता भी रहता है। वो कमरा उसके लिए कब्र बन जाता, जहाँ कैद होने में उसे
आज़ादी का एहसास होता है।
अगर कब्रों की देख-रेख बाहर
से न हो तो वो आमतौर से वक़्त के साथ बैठ जातीं हैं, सपाट हो जातीं हैं, या फिर बारिश का पानी अगर जम जाये तो वो कभी-कभी काफ़ी बेरहमी से ढह जातीं हैं। कब्र अधखुले गड्ढे में
तब्दील हो जाती है। रौशनी और अँधेरे के ख़ास
अनुपात के कारण कब्र काफ़ी रहस्यमयी लगती है।
कब्र को वापस जिंदा किये जाने पे समाज में दो विचारधाराएँ बन जाती हैं। दोनों तरफ़ के मानने वाले
आपस में बहस और लड़ाईयाँ करते हैं। क़यामत के दिन एक कब्र में सत्तर मुर्दे कैसे समायेंगे
- जैसे रौंगटे खड़े कर देने वाले तर्क भी दिए जाते हैं। अधखुली कब्रों से बच्चों को शैतानी करने पे डराया भी जाता है।
मुर्दा जिसे लोग भूल चुके हैं, इन प्रतिक्रियाओं से जिंदा
हो जाता है। उसकी अच्छाइयाँ और बुराईयाँ गिनाई जातीं
हैं।
बुराईयाँ अगर ज़्यादा हों तो कब्र का ढहना प्राकृतिक न्याय
का उदाहरण बन जाता है। अच्छाईयों का पलड़ा भारी हो
तो यह मान लिया जाता है कि पवित्र आत्मा की समाज में वापसी हुई है।
उसके कमरे का मज़ार उस रोज़ ढह गया जब उसके दरवाज़े पे एक चेहरा आता है।
चेहरे पे एक नरमियत है जिससे उसको जनाना मानने में आसानी होती है।
अनगिनत शिकन हैं चेहरे पे। जिनको वो विभिन्न
प्रजातियों में बाँट देता है। वो शिकन का वर्गीकरण उनके गहराईओं के आधार पे करता है।
चोट-खरोंच का शिकन सबसे कम
गहरा है और थोड़ी लाली लिए हुए है।
ग़रीबी का शिकन 'ब्लैक एंड वाइट' मानचित्रों में बनी हुयी
नदियों की तरह है - काला और गहरा।
मायूसी और नाउम्मीदी के
शिकन गहरे तो हैं पर वो निरंतर अपने आकार बदलते रहते हैं - कभी
बड़े तो कभी छोटे होते हैं।
उम्र की वजह से पड़ा हुआ
शिकन मध्धम है,
या फिर और सबकी अपेक्षा लग रहा है।
कुछ एक शिकन, होंठों के दोनों तरफ हैं, थोड़े 'सिमेट्रिकल' हैं। शायद मुस्कराहट के हैं, ऐसा लगता है सदियों पहले किसी के स्नेह में मुस्कुराई होगी, शिकन पड़े होंगे। फिर वक़्त की ऐसी बर्फ़बारी
हुयी होगी कि बेचारे ठिठुर के रह गएँ होंगे। अभी भी कांपते और जमे हुए से महसूस होते हैं।
हर शिकन में कहानी दिखाई
देती है उसे। चेहरा नहीं मानो किताब पढ़
रहा है। पढ़ते-पढ़ते वो खो जाता है।
वो उसे अपनी सर्द निगाहों
से घूरता है। चेहरा मजबूरी में मुस्कराहट
की शॉल ओढ़ लेता है। दिखावे में पड़े इन नए शिकनों में उसे अपने ही सर्द निगाहों की परछाईं नज़र आती है। वो ठिसिया जाता है।
उसका ध्यान उसके बड़े-बड़े
आँखों की तरफ़ जाता है। काफ़ी भरी हुयी आँखें हैं -
वो सोचता है। आँखों के नीचे हरे रंग की
काई जमी हुयी है। वो पानी और काई को पोछने की
कोशिश करता है। पुरानी काई मालूम होती है, साफ़ नहीं हो पाती है। वो हाथ पीछे कर लेता है।
जल प्रपात उसकी आँखों से
निकलता है। पानी की धारा चेहरे की सतह
को छूते ही ,
शिकनों की वजह से सैकड़ों धाराओं में बंट जातीं हैं। यह धाराएं बहूत ही शालीनता से चेहरे की ठुड्डी के पास आकर मिलती हैं, जैसे नदियों की धाराएं समंदर में समाने से मिलतीं हैं।
पानी इकठ्ठा होकर उसकी कब्र पे गिरता है और जमा होने लगता है। काफ़ी वज़नदार मालूम होता है। वो कब्र
में पड़ा-पड़ा कब्र के गिरने का इंतजार करता है।
वो किसी जॉन बर्नसाइड की
लिखी हूयी पंक्तियाँ भी पढता है:
“If solitude does not
lead us back to society, it can become a spiritual dead end, an act of
self-indulgence or escapism, as Merton, Emerson, Thoreau, and the Taoist
masters all knew. We might admire the freedom of the wild boar, we might even
envy it, but as long as others are enslaved, or hungry, or held captive by
social conventions, it is our duty to return and do what we can for their
liberation. For the old cliché is true: no matter what I do, I cannot be free
while others suffer. And, no matter how sublime or close to the divine my
solitary hut in the wilderness might be, it is a sterile paradise of emptiness
and rage unless I am prepared to return and participate actively in the social
world.”
वो लौटने की तैय्यारी करता
है। दुनियावी ऐतबार से यह सब जीवन-मृत्यु चक्र जैसा है, पर उसे यह सब जीवन-जीवन चक्र जैसा लगता है।
The author, who is a prolific reader, has precisely portrayed the state of his own and many other readers. Describing the different aspect of wrinkles in his own style is commendable. Small rhyming sentences which are like a narration of a play make it more interesting. Good one!! :)
ReplyDeleteThanks Pankaj for your kind words and appreciation :)
ReplyDeletenice one yaar...great philosophy involved. I am not much of a reader, so i had to repeat few paras to get into the flow. keep writing bro....u rock
ReplyDelete!
Thanks Kanchan! Your encouragement has always been a motivating force :)
DeleteGood one..though i could understand only few of it..
ReplyDeleteSome of lines made lot of sense and were lovely..
Dude, you in some dimension, one aspires to be there!
Really heartening to receive words of appreciation from you VC! Your words written and otherwise have always been a source of inspiration :)
ReplyDeleteThanks for your encouraging words. I am super glad that you liked it.