Sunday, April 21, 2013

On Separation and Journeys

नींद से बोझिल एक खेवय्या
सफ़ीना-ए-उम्मीद को तैयार करता है
किश्ती में कुछ एक छेद हैं
दोस्त अहबाब उसे भर देते हैं
और थमा देते हैं दो चप्पू
खेवय्या ग़ूनूदगी की हालत में
नाव को सैलाबी समंदर में धकेलता है
जज़ीरे पे खड़े अपनों को अलविदा कहता हैI

उससे एक बार मार्केज़ ने कहा था
 "कोई भी जगह तब तक किसी की नहीं होती
 जब तक उसकी मिट्टी में कोई अपना दफ़्न न होI"
खेवय्या का अपनापन तो और भी गहरा था
ख़ुद मिट्टी ही उसके अन्दर दफ़्न थी
खेवय्या का पूरा दिल ही
जज़ीरे की नरम मिट्टी का बना मालूम होता है
जुदाई के आंसू उसके दिल की मिट्टी को और भी नरम कर देते हैं
वो सुबुक-सुबुक की आवाजें निकालने लगता है
लोग उसे ऐसा करने से मना करते हैं
कहते हैं -
 "समुंदरी सफ़र है
आगे पानी की ज़रुरत पड़ेगी
प्यास लगेगी,
तब पीना इन्हें"
ज़रुरत के ख़्याल से वो आंसूओं को संभाल लेता है
ऐसा वो पहले भी कर चुका है
दुआ दुरूद के साथ
खेवय्या समंदर में अपनी छोटी नाव लेकर निकल जाता हैI

समंदर तूफ़ानी मालूम होता है
वो थोड़ा डर भी जाता है
नमकीन पानी के झटास
चारो तरफ़ से उसे थप्पड़ मारते हैं
नमकीन पानी आँखों में घुस जाता है
उससे आँखों में तेज़ जलन पैदा होती है
वो होशियारी से दो बूँद पानी आँखों से निकाल कर
आँखों को साफ़ कर लेता है
जलन कम हो जाती हैंI

दोनों बूँदें समुंदरी हवा से बचते हुए
खेवय्या की शक्ल पे सीधी लकीर खींचने का खेल खेलतीं हैं
ये खेल एक दौड़ में तब्दील हो जाती है
समुंदरी हवा बूँदों की बनायीं हुयी लकीर को टेढ़ा कर देती है
ऐसा करके वो हंसती भी है
जिसे खेवय्या सुनता है
पर समझ नहीं पाता है
दोनों बूँदें थक कर उसके उपरी होंट पे बैठ जाती हैं
और ख़ामोशी से उसके होंटों से ढलक कर
मुँह में घुस जाती हैं
सिसकती हुयी आवाज़ के सहारे वो उसे घोंट जाता है
दो बूँदें दिल की मिट्टी को और नरम बना देती हैंI

सफ़र को बिताने के लिहाज़ से वो सोने का ढोंग रचता है
ख्व़ाब देखने की भी कोशिश करता है
पर उसका ज़ेहन
सिर्फ उसकी बीती हुयी ज़िन्दगी की कुछ तसवीरें
 जल्दबाज़ी में सी कर दे देता है
वो थोड़ा बेचैन हो जाता है
यादों के कपड़ों की सिलाई वो ख़ुद करता है
धागा नीला इस्तेमाल किया जाये या पीला
लाल या हरा
जैसे उलझन में वो फँस जाता है
वो ज़ेहन पे ज़ोर डालता है
अकेलेपन की वजह से,
वो धागों का चुनाव नहीं कर पाता है
यादाश्त कमज़ोर पड़ती हुयी नज़र आती है
वो माज़ी और फ़ितूर में फ़र्क नहीं कर पाता है
थक हार कर सिर्फ सफ़ेद और काले धागों से कपड़ा बुनता है
सुकून फिर भी नहीं मिलता हैI

समुंदरी पानी नाव में घुसने लगता है
कपड़ों से वो छेद बंद करता है
कपड़ों से वो पानी निचोड़ कर
वापस समंदर में फेकता है
कपड़ों से पानी गार कर पी भी लेता है
प्यास नहीं मिटती है
पर समंदरी पानी से
नरम पड़ा दिल थोड़ा सख्त़ होता है
इससे सफ़र में थोड़ी आसानी होती हैI

शाम के वक़्त तय मंजिल नज़र आने लगती है
उसकी नाव जो आधे पानी से भरी है
ज़मीन पे पहूंचती है
दो लोग सख्त़ी से उसके आने का सबब पूछते हैं
अंदर बैठाने से पहले
वापस कब जाओगे पूछते हैं
खेवय्या पलट कर
अपने जज़ीरे की ओर देखता है
उसकी माँ दूर से उसे नज़र आती है
भाई-बहन माँ के बग़ल में खड़े नज़र आते हैं
एक लड़की भी अकेली नज़र आती है
दोस्त भी ज्यों के त्यों नज़र आते हैं
 जैसा उन्हे वो छोड़ कर आया था
उन लोगों की आँखों में
वो इंतज़ार देखता है
खेवय्ये की आँखें पिघलने लगती हैं
सख्त़ पड़ा दिल
पानी भरे गुब्बारे की तरह
 लुच-पुच होने लगता है
वो पलटता है
धैर्य और एक संक्रामक उम्मीद से बोलता है
"कल लौट जाऊँगा"
वो शहर में दाख़िल होता है
कल लौटने की तैयारी करता हैI














       

2 comments:

  1. bahut hi umda Tabish !! ek line ne to mann hi moh liya
    'ज़रुरत के ख़्याल से वो आंसूओं को संभाल लेता है'
    kafi khoobsurti ke sath feelings bahar aa rahi hai .well done !!

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  2. Thanks Ajay!! Your words are highly regarded. Thanks for the encouragement!

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