Friday, January 24, 2014

कालिख

कैसी ख़बर थी वो। कौमा, फुल-स्टॉप तक चीख़ रहे थे। लफ़्ज़ मानों अख़बार के पन्ने से निकल कर भागना चाह रहे थे। शायद वो ऐसा करने भी लगे थे। आँखें भीगने लगीं थीं। सीने में दर्द जो उठने लगा था। शब्द आज अख़बार छोड़ के कहीं और पैबस्त हो रहे थे। 

यह कह पाना मुश्किल था कि ख़बर ज़यादा काली थी या उसमें लिखे गए हर्फ़। रात ने बेबसी में आंसू बहाये थे। स्याही में रात का अंधेरापन साफ़ झलक रहा था। लगता है उस रोज़ सुबह हुयी ही नहीं थी, रात पिघल गयी थी।

ख़बर पढ़ने के बाद आईने में देखने कि हिम्मत नहीं हुयी। शक्ल पे कालिख जो पुत गयी थी। हर्फ़ उधड़-उधड़ के चेहरे पे जो चिपक गए थे।

ऐसी ही न जाने कितनी सुबहें नहीं हुयीं, न जाने और कितनी रातें पिघलेंगी ?

1 comment:

  1. उस खबर की चोट और उससे हुए ज़ख्म की गहराई इन पंक्तियों में चिल्लाते हुए दिख रहे हैं. यह कहना "कौमा, फुल-स्टॉप तक चीख़ रहे थे" अपने आप में अलग है, जो उस खबर की भयावता के विस्तार को अंतहीन बनाती है. ऐसी भावनाओं को प्रकट करना ही अपने आप में एक संघर्ष है, फिर भी नितान्त आवश्यक है. ताबिश भाई लिखते रहो!

    ReplyDelete