पहले कुछ चीज़ों के मायने इतने ठोस नहीं थे। उनमें सन्दर्भ का लचीलापन था। मगर तुमसे मिलने और बिछड़ने के बाद कुछ चीज़ों के मायनों में सख़्ती आ गयी है।
अब जब भी चाय की कांच वाली छोटी गिलास देखता हूँ, तो इंतज़ार की वो घड़ियाँ याद आतीं हैं, जिनको मैंने तुम्हारे कॉलेज की गेट पे चाय की दुकान में गुज़ारी थीं। उन प्यालिओं में मैं चाय की चुस्की कम लेता था, और वक़्त को ज़्यादा गटकता था। अब भी किसी चाय की दुकान में चाय पीता हूँ, तो लगता है किसी का इंतज़ार कर रहा हूँ।
यही हाल जब दिल्ली की बसों में टिकट लेता हूँ तो होता है। हमेशा दो टिकट लिया करता था। आज भी कभी कभार दो टिकट ले लेता हूँ। एक अपने लिए और एक उन यादों के लिए, जिनको वक़्त ने कारीगरी से टिकटों में तब्दील कर दिया है।
टेनिस की गेंद अक्सर मैं पड़ोस के आँगन में फ़ेंक देता हूँ, और दरवाज़ा खटखटा कर मांग लेता हूँ। उम्मीद रहती है कि तुम शायद लौटाने आओगी। ऐसा मैं गेंद के उकसाने पे ही करता हूँ। लेकिन थोड़ी बहुत उम्मीद मुझे भी रहती है।
न जाने और कितने चीज़ों पे संस्मरण के छाप पड़ेंगे ?
न जाने वक़्त के धब्बे और कितने मायनों को धुँधला करेंगे ?
न जाने वक़्त के धब्बे और कितने मायनों को धुँधला करेंगे ?
अच्छा हुआ तुम जल्दी ही बिछड़ गयी, नहीं तो मेरी तंग दुनिया में चीज़ों के मायनों की भारी तंगी हो जाती।
beautiful... poetic!
ReplyDeleteThanks VC!
DeleteNever knew about this side of yours... by the way, it was lovely...
ReplyDeleteAisey hin :) Thanks!
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