जिसके किनारे खड़ा
बस-स्टॉप का खम्बा
जिसपे अक्सर,
उकताकर,
मैं लद जाता हूँ।
आज बारिश हुयी
तब देखा उसे -
उस मकड़ी के जंगले को,
जिनपे टंगीं थीं
बारिश की बूँदें
इतनी गोल
मानो सर्फेस-टेंशन ने उन्हें
तन्हाई में बनाया होगा
बाकी सारे फोर्सेज़ ने
बैठ उन्हे बनते देखा होगा।
और जब सड़क पे गाड़ियाँ ग़ुज़रतीं,
अपने हेड-लाइट्स को जलाये हुए,
बूँदों में रौशनी भरने लगती,
बूँद-बूँद।
उरूज पे सब सूरज बन जाते,
टिम-टिमाते जंगले पे,
सूक्ष्म रौशनी की लड़ियाँ
लटकतीं, डोलतीं हवा से।
और जब गाड़ियाँ दूर जाने लगतीं,
रौशनी कतरा-कतरा सूखती जाती,
जंगले के धागे
मानो उन्हें पीने लगे हैं
और झूमते जाते हैं
हवा की धुन पे।
बारिश की बूँदें,
बादल का अक्स लिए,
चमकतीं चाँद की तरह।
सड़क की बेसब्री
घटती, बढ़ती रहती।
बारिश की बूँदें,
कभी सूरज, कभी चाँद
का चोला पहने,
थरथराती रहतीं,
एक मासूम मकड़ी के जंगले पर।
- ताबिश नवाज़ 'शजर'
kya bat
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